________________ प्रिज्ञापनासूत्र [46] थिरणामए एगं सत्तभागं / अथिरणामए दो। [1702-46] स्थिरनामकर्म की स्थिति : भाग की है तथा अस्थिरनामकर्म की स्थिति भाग की है। [50] सुभणामए एगो / असुभणामए दो। _ [1702-50] शुभनामकर्म की स्थिति भाग की और अशुभनामकर्म की स्थिति - भाग की समझनी चाहिए। [51] सुभगणामए एगो / दूभगणामए दो। [1702-51] सुभगनामकर्म की स्थिति : भाग की और दुर्भगनामकर्म की स्थिति में भाग की है। [52] सूसरणामए एगो। दूसरणामए दो। [1702-52) सुस्वरनामकर्म की स्थिति भाग की और दुःस्वरनामकर्म की स्थिति / भाग की होती है। [53] पाएज्जणामए एगो / अणाएज्जणामए दो। [1702-53] प्रादेयनामकर्म की स्थिति : भाग की और अनादेयनामकर्म की 3 भाग की होती है। [54] जसोकित्तिणामए जहणणं अट्ठ मुहुत्ता, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडोलो दस य वाससताई अबाहा० / [1702-54] यश:कीर्तिनामकर्म की स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है / उसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का होता है / [55] अजसोकित्तिणामए पुच्छा। गोयमा ! जहा अपसत्थविहायगतिणामस्स (सु. 1702 [43]) / [1702-55 प्र.] भगवन् ! अयशःकीतिनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [1702-55 उ.] गौतम ! (सू. 1702-43 में उल्लिखित) अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म की स्थिति के समान इसकी (जघन्य और उत्कृष्ट) स्थिति जाननी चाहिए। [56] एवं णिम्माणणामए वि / [1702-56] इसी प्रकार निर्माणनामकर्म की स्थिति के विषय में भी (जानना चाहिए / ) [57] तित्थगरणामए गं० पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अंतोसागरोवमकोडाकोडोमो, उक्कोसेण वि अंतोसागरोवम. कोडाकोडीयो। [1702-57 प्र.] भगवन् ! तीर्थकरनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org