Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तेईसवां कर्मपद] असातावेदनीयकर्म का अष्टविध अनुभाव-सातावेदनीय के अनुभाव (विपाक) के समान है पर यह अनुभाव सातावेदनीय से विपरीत है / विष, शस्त्र, कण्टक आदि पुद्गल या पुद्गलों का जब वेदन किया जाता है अथवा अपथ्य या नीरस आहारादि पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से यथाकाल होने वाले शीत, उष्ण, आतप आदिरूप पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, तब मन को असमाधि होती है, शरीर को भी दुःखानुभव होता है तथा तदनुरूप वाणी से भी असाता के उद्गार निकलते हैं। ऐसा अनुभाव असातावेदनीय का है। असातावेदनीयकर्म के उदय से असातारूप (दुःखरूप) फल प्राप्त होता है / यह परत: असातावेदनीयोदय का प्रतिपादन है। किन्तु विना ही किसी परनिमित्त के असातावेदनीयकर्म-पुद्गलों के उदय से जो दुःखानुभव (दु:खवेदन) होता है, वह स्वतः असातावेदनीयोदय है / ' __ मोहमीयकर्म का पंचविध अनुभाव : क्या, क्यों और कैसे ? ---पूर्वोक्त प्रकार से जीव के द्वारा बद्ध आदि विशिष्ट मोहनीयकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव है-(१) सम्यक्त्ववेदनीय, (2) मिथ्यात्ववेदनीय, (3) सम्यग्-मिथ्यात्ववेदनीय, (4) कषायवेदनीय और (5) नोकषायवेदनीय। इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है सम्यक्त्ववेदनीय-जो मोहनीयकर्म सम्यक्त्व-प्रकृति के रूप में वेदन करने योग्य होता है, उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते हैं, अर्थात्-जिसका वेदन होने पर प्रशम आदि परिणाम उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्ववेदनीय है। मिथ्यात्ववेदनीय-जो मोहनीयकर्म मिथ्यात्व के रूप में वेदन करने योग्य है, उसे मिथ्यात्ववेदनीय कहते हैं। अर्थात्--जिसका वेदन होने पर दृष्टि मिथ्या हो जाती है, अर्थात् अदेव आदि में देव आदि की बुद्धि उत्पन्न होती है, वह मिथ्यात्ववेदनीय है। सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय–जिसका वेदन होने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिला-जुला परिणाम उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय है। कषायवेदनीय-जिसका वेदन क्रोधादि परिणामों का कारण होता है, वह कषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय-जिसका वेदन हास्य आदि का कारण हो, वह नोकषायवेदनीय है। परतः मोहनीय-कर्मोदय का प्रतिपावन-जिस पुद्गल-विषय अथवा जिन बहुत से पुद्गल विषयों का वेदन किया जाता है। अथवा जिस पुद्गल-परिणाम को, जो कर्म पुद्गल-विशेष को ग्रहण करने में समर्थ हो एवं देश-काल के अनुरूप आहार परिणामरूप हो, वेदन किया जाता है। जैसे कि ब्राह्मी आदि के आहार-परिणमन से ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम देखा जाता है / इससे स्पष्ट है कि आहार के परिणमन-विशेष से भी कभी-कभी कर्मपुद्गलों में विशेषता आ जाती है / कहा भी है उदय-क्खय-खोवसमोवसमा वि य जंच कम्मणो भणिया। दव्वं खेत्तं कालं भावं च भवं च संयप्प // 1 // अर्थात्-कर्मों के जो उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम कहे गए हैं, वे भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव का निमित्त पाकर होते हैं अथवा स्वभाव से ही जिस पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, जैसे-आकाश में बादलों आदि के विकार को देख कर मनुष्यों को ऐसा वेदन 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 204-205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org