________________ तेईसवाँ कर्मपद] की चाल के समान शुभ हो अथवा ऊँट, गधे आदि की चाल के समान अशुभ हो, उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं। (21) त्रस-नामकर्म-जो जीव त्रास पाते हैं, गर्मी आदि से संतप्त होकर छायादि का सेवन करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, ऐसे द्वीन्द्रियादि जीव 'स' कहलाते हैं / जिस कर्म के उदय से त्रस-पर्याय की प्राप्ति हो वह वस-नामकर्म है। (22) स्थावर-नामकर्म- जो जीव सर्दी, गर्मी आदि से पीड़ित होने पर भी उस स्थान को त्यागने में समर्थ न हो, वह स्थावर कहलाता है। जैसे पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव / जिस कर्म के उदय से स्थावर-पर्याय प्राप्त हो, उसे स्थावर-नामकर्म कहते हैं। (23) सूक्ष्म-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से बहुत-से प्राणियों के शरीर समुदित होने पर भी छद्मस्थ को दृष्टिगोचर न हों, वह सूक्ष्म-नामकर्म है / इस कर्म के उदय से जीव अत्यन्त सूक्ष्म होता है। (24) बादर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल) काय की प्राप्ति हो, अथवा जो कर्म बादरता-परिणाम को उत्पन्न करता है, वह बादर-नामकर्म है। (25) पर्याप्त नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य आहारादि पर्याप्तियों को पूर्ण करने में समर्थ होता है, अर्थात् आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें आहारादि के रूप में परिणत करने की कारणभूत आत्मा की शक्ति से सम्पन्न हो, वह पर्याप्त-नामकर्म है। (26) अपर्याप्त-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके, वह अपर्याप्त नामकर्म है। (27) साधारणशरीर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो, जैसे-निगोद के जीव / (28) प्रत्येकशरीर-नामकर्म--जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव का शरीर पृथक्-पृथक् हो / (26) स्थिर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर, अस्थि, दांत आदि शरीर के अवयव स्थिर हों, उसे स्थिर-नामकर्म कहते हैं / (30) अस्थिर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीभ आदि शरीर के अवयव अस्थिर (चपल) हों। (31) शुभ-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाभि से ऊपर के अवयव शुभ हों। (32) अशुभ-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के चरण आदि शरीरावयव अशुभ हों, वह अशुभ-नामकर्म है / पैर से स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही अशुभत्व का लक्षण है। (33) सुभग-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से किसी का उपकार न करने पर और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी व्यक्ति सभी को प्रिय लगता हो, वह सुभग-नामकर्म है। (34) दुर्भग-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से उपकारक होने पर भी जीव लोक में अप्रिय हो, वह दुर्भग-नामकर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org