Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ तेईसवा कर्मपद] बनाने वाले कुम्भकार के समान गोत्रकर्म का स्वभाव है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र के क्रमशः पाठपाठ भेद हैं।' अन्तरायकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण-जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीयं (पराक्रम) में अन्तराय (विघ्न-बाधा) उत्पन्न हो, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं / इसके 5 भेद हैं / इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं--- दानान्तराय-दान की सामग्री पास में हो, गुणवान् पात्र दान लेने के लिए सामने हो, दान का फल भी ज्ञात हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव दान न दे पाये उसे 'दानान्तरायकर्म' कहते हैं / लाभान्तराय-दाता उदार हो, देय वस्तु भी विद्यमान हो, लेने वाला भी कुशल एवं गुणवान् पात्र हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे 'लाभान्तरायकर्म कहते हैं। भोगान्तराय-जो पदार्थ एक बार भोगे जाएँ उन्हें 'भोग' कहते हैं जैसे-भोजन आदि / भोग के विविध साधन होते हुए भी जीव जिस कर्म के उदय से भोग्य वस्तुओं का भोग (सेवन) नहीं कर पाता, उसे 'भोगान्तरायकर्म' कहते हैं / उपभोगान्तराय-जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएँ, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-मकान, वस्त्र, आभूषण आदि / उपभोग की सामग्री होते हुए भी जिस के उदय से जीव उस उपभोग-सामग्री का उपभोग न कर सके, उसे 'उपभोगान्तरायकर्म कहते हैं। वीर्यान्तराय–वीर्य का अर्थ है पराक्रम, सामर्थ्य, पुरुषार्थ / नीरोग, शक्तिशाली कार्यक्षम एवं युवावस्था होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव अल्पप्राण, मन्दोत्साह, आलस्य, दौर्बल्य के कारण कार्यविशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति-सामर्थ्य का उपयोग न कर सके, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं। इस प्रकार पाठों कर्मों के भेद-प्रभेदों का वर्णन सू. 1687 से 1666 तक है / 2 कर्मप्रकृतियों की स्थिति की प्ररूपरणा 1667. णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मरस केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, प्रबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। [1697 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1697 उ.] गौतम ! (उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडा 1. (क) वही, भा. 5, पृ. 275-76 (ख) कर्मग्रन्थ, भा. 1, ( मरु. व्या.) पृ. 151 2. (क) वही, भा. 5, पृ.१५१, (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनीटीका), भा. 5, पृ. 277-78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org