________________ 4.] [प्रज्ञापनासूत्र (35) सुस्वर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और सुरीला हो, श्रोताओं के लिए प्रमोद का कारण हो, वह सुस्वर-नामकर्म है। जैसे--कोयल का स्वर / (36) दुःस्वर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश और फटा हुआ हो, उसका स्वर श्रोताओं की अप्रीति का कारण हो / जैसे—कौए का स्वर / (37) आदेय-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव जो कुछ भी कहे या करे, उसे लोग प्रमाणभूत माने, स्वीकार कर लें, उसके वचन का आदर करें, वह प्रादेय-नामकर्म है / (38) अनादेय-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से समीचीन भाषण करने पर भी उसके वचन ग्राह्य या मान्य न हों, लोग उसके वचन का अनादर करें, वह अनादेय-नामकर्म है। (36) यशःकोति-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से लोक में यश और कीर्ति फैले / शौर्य, पराक्रम, त्याग, तप आदि के द्वारा उपाजित ख्याति के कारण प्रशंसा होना, यशःकीर्ति है। अथवा सर्व दिशाओं में प्रशंसा फैले उसे कीति और एक दिशा में फैले उसे यश कहते हैं। (40) अयशःकोति-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से सर्वत्र अपकीति हो, बुराई या बदनामी हो, मध्यस्थजनों के भी अनादर का पात्र हो। (41) निर्माण-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर में अपनी-अपनी जाति के अनुसार अंगोपांगों का यथास्थान निर्माण हो, उसे निर्माण-नामकर्म कहते हैं। (42) तीर्थकर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से चौंतीस अतिशय और पैंतीस वाणी के गुण प्रकट हों, वह तीर्थंकर-नामकर्म कहलाता है। नामकर्म के भेदों के प्रभेद-गतिनामकर्म के 4, जातिनामकर्म के 5, शरीरनामकर्म के 5, शरीरांगोपांगनामकर्म के 3, शरीरबन्धननामकर्म के 5, शरीरसंघातनामकर्म में 5, संहनननामकर्म के 6, संस्थाननामकर्म के 6, वर्णनामकर्म के 5, गन्धनामकर्म के 2, रसनामकर्म के 5, स्पर्शनामकर्म के 8, अगूरुलघनामकर्म का एक, उपघात और पराघात नामकर्म का एक-एक, प्रानपूर्वीनामकर्म के चार तथा आतपनाम, उद्योतनाम, बसनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीरनाम,प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, प्रादेयनाम, अनादेयनाम, यश कीर्तिनाम, अयश:कीर्तिनाम, निर्माणनाम, और तीर्थकरनामकर्म के एक-एक भेद हैं विहायोगतिनामकर्म के दो भेद हैं।' गोत्रकर्म : स्वरूप और प्रकार-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च अथवा नीच कूल में जन्म लेता है, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं। जिस कर्म के उदय से लोक में सम्मानित, प्रतिष्ठित जाति-कुल प्रादि की प्राप्ति होती है तथा उत्तम बल, तप,रूप, ऐश्वर्य, सामर्थ्य, श्रुत, सम्मान, उत्थान, ग्रासनप्रदान, अंजलिकरण आदि की प्राप्ति होती है, वह उच्चगोत्रकर्म है। जिस कर्म के उदय से लोक में निन्दित कुल, जाति की प्राप्ति हो, उसे नीचगोत्रकर्म कहते हैं। सुघट और मद्यघट 1. (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टोका), भा. 1, पृ. 98 से 103 तक (ख) वही,भा. 5, पृ. 252 से 275 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org