________________ तेईसवाँ कर्मपद] [37 नरकादि गतियों में रहना पड़ता है। बांधी हुई आयु भोग लेने पर ही उस शरीर से छुटकारा मिलता है / आयुकर्म का कार्य जीव को सुख-दुःख देना नहीं है, अपितु नियत अवधि तक किसी एक शरीर में बनाये रखने का है / ' इसका स्वभाव हडि (खोडा-बेड़ी) के समान है। नामकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण-जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है अथवा जिस कर्म से आत्मा गति अादि नाना पर्यायों का अनुभव करे या शरीर आदि बने, उसे नामकर्म कहते हैं / नामकर्म के अपेक्षाभेद से 103, 63 अथवा 42 या किसी अपेक्षा से 67 भेद हैं। प्रस्तुत सूत्रों में नामकर्म के 42 भेद कहे गए हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है / इनका लक्षण इस प्रकार है (1) गति-नामकर्म-जिसके उदय से प्रात्मा मनुष्यादि गतियों में जाए अथवा नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव की पर्याय प्राप्त करे। नारकत्व आदि पर्यायरूप परिणाम को गति कहते हैं। गति के 4 भेद हैं, नरकगति आदि / इन गतियों को उत्पन्न करने वाला नामकर्म गतिनामकर्म है। (2) जाति-नामकर्म एकेन्द्रियादि जीवों की एकेन्द्रियादि के रूप में जो समान परिणति (एकाकार अवस्था) उत्पन्न होती है, उसे जाति कहते हैं / स्पर्शन, रसन आदि पांच इन्द्रियों में से जीव एक, दो, तीन, चार या पांच इन्द्रियाँ प्राप्त करता है और एकेन्द्रियादि कहलाता है, इस प्रकार की जाति का जो कारणभूत कर्म है, उसे जातिनामकर्म कहते हैं / (३)शरीर-नामकर्म---जो शीर्ण (क्षण-क्षण में क्षीण) होता रहता है, वह शरीर कहलाता है / शरीरों का जनक कर्म शरीरनामकर्म है / अर्थात् जिस कर्म के उदय से प्रौदारिक, वैक्रिय आदि शरीरों की प्राप्ति हो, अर्थात् ये शरीर बनें / शरीरों के भेद से शरीरनामकर्म के 5 भेद हैं / (4) शरीर-अंगोपांग-नामकर्म-मस्तिष्क आदि शरीर के 8 अंग होते हैं। कहा भी है-- 'सीसमुरोयर-पिट्ठी-दो बाहू अरुया य अट्ठगा।' अर्थात् सिर, उर, उदर, पीठ, दो भुजाएँ और दो जांघ, ये शरीर के आठ अंग हैं / इन अंगों के अंगुली आदि अवयव उपांग कहलाते हैं और उनके भी अंगजैसे अंगुलियों के पर्व प्रादि अंगोपांग हैं। जिस कर्म के उदय से अंग, उपांग आदि के रूप में पुद्गलों परिणमन होता हो, अर्थात जो कर्म अंगोपांगों का कारण हो, वह अंगोपांग नामकर्म है। यह कर्म तीन ही प्रकार का है, क्योंकि तैजस और कार्मणशरीर में अंगोपांग नहीं होते। (5) शरीरबंधन नामकर्म-जिसके द्वारा शरीर बंधे, अर्थात् जो कर्म पूर्वगृहीत औदारिकादि शरीर और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले औदारिकादि पुद्गलों का परस्पर में, अर्थात् तेजस आदि पुद्गलों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न करे, वह शरीरबन्धन-नामकर्म है। (6) शरीर-संहनन-नामकर्म-हड्डियों की विशिष्ट रचना संहनन कहलाती है। संहनन औदारिक शरीर में ही हो सकता है, अन्य शरीरों में नहीं, क्योंकि अन्य शरीर हड्डियों वाले नहीं होते। अतः जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधियाँ सुदृढ होती हैं, उसे संहनन नामकर्म कहते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 251 (ख) कर्मग्रन्थ, भा. 1 (मरुधरकेसरीव्याख्या), प्र. 94 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org