Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रज्ञापनासूत्र वक्रता कठोर परिश्रम व अनेक उपायों से दूर होती है, वैसे ही जो माया-परिणाम अत्यन्त परिश्रम व उपाय से दूर हो / प्रत्याख्यानावरण माया-चलते हुए बैल की मूत्ररेखा की वक्रता के समान जो माया कुटिल परिणाम वाली होने पर कुछ कठिनाई से दूर होती है। संज्वलनमाया-बांस के छिलके का टेढ़ापन जैसे बिना श्रम के सीधा हो जाता है, वैसे ही जो मायाभाव आसानी से दूर हो जाता है / अनन्तानुबन्धी लोभ-जैसे किरमिची रंग किसी भी उपाय से नहीं छ्टता, वैसे ही जिस लोभ के परिणाम उपाय करने पर भी न छूटते हों। अप्रत्याख्यानावरणलोभ-गाड़ी के पहिये की कीचड़ के समान अतिकठिनता से छूटने वाला लोभ का परिणाम / प्रत्याख्यानावरण लोभ–काजल के रंग के समान इस लोभ के परिणाम कुछ प्रयत्न से छूटते हैं। संज्वलनलोभ–सहज ही छूटने वाले हल्दी के रंग के समान इस लोभ के परिणाम नोकषायवेदनीय-जो कषाय तो न हो, किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है, अथवा कषायों को उत्तेजित करने में सहायक हो। जो स्त्रीवेद आदि नोकषाय के रूप में वेदा जाता है, वह नोकषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय के भेद हैं स्त्रीवेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो / पुरुषवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो। नपुंसकवेद—जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो। इन तीनों वेदों की कामवासना क्रमशः करीषाग्नि (उपले की प्राग), तृणाग्नि और नगरदाह के समान होती है। हास्य-जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण के हंसी आती है या दूसरों को हंसाया जाता हो / रति-अरति-जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों के प्रति राग-प्रीति या द्वष-अप्रीति उत्पन्न हो / शोक--जिस कर्म के उदय मे सकारण या अकारण शोक हो। भय-जिस कर्म के उदय से कारणवशात् या बिना कारण सात भयों में से किसी प्रकार का भय उत्पन्न हो। जुगुप्सा–जिस कर्म के उदय से बीभत्सघृणाजनक पदार्थों को देख कर घृणा पैदा होती है।' प्रायुकर्म : स्वरूप, प्रकार और विशेषार्थ-जिस कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक के रूप में जीता है और जिसका क्षय होये पर उन रूपों का त्याग कर मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। आयुकर्म के चार भेद हैं, जो मूलपाठ में अंकित हैं। प्रायुकर्म का स्वभाव कारागार के समान है। जैसे अपराधी को छूटने की इच्छा होने पर भी अवधि पूरी हुए बिना कारागार से छुटकारा नहीं मिलता, इसी प्रकार आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि तक 1. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 243 से 251 तक (ख) कर्म ग्रन्थ भाग-१ (मरुधरकेसरीव्याख्या) पृ. 55-70, 81 से 93 तक (i) कम्म कसो भवो वा कसमातोसिं कसायातो। कसमाययंति व जतो गमयंति कसं कसायत्ति / -विशेषावश्यक भाग-१२२७ (ii) अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते / पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति / संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति ।-तत्त्वार्थ सुत्र भाष्य, अ. 8 सू.१० (iii) कषाय-सहवर्तित्वात् कषाय-प्रेरणादपि / हास्यादिनवकस्योक्ता नो-कषाय-कषायता // 1 // -कर्मग्रन्थ, भा. 1, पृ. 84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org