________________ 34] [प्रज्ञापनासूत्र (3) वेदनीयकर्म-जो कर्म इन्द्रियों के विषयों का अनुभवन-वेदन कराए, उसे वेदनीयकर्म कहते हैं / वेदनीयकर्म से आत्मा को जो सुख-दुःख का वेदन होता है, वह इन्द्रियजन्य सुख-दुःख अनुभव है। आत्मा को जो स्वाभाविक सुखानुभूति होती है वह कर्मोदय से नहीं होती। इसका स्वभाव तलवार की शहद-लगी धार को चाटने के समान है। इसके मुख्य दो प्रकार है--(१) सातावेदनीय—जिस कर्म के उदय से आत्मा को इन्द्रिविषय-सम्बन्धी सुख का अनुभव हो, उसे सातावेदनीयकर्म कहते हैं / (2) असातावेदनीय---जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकल विषयों की प्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रियविषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव हो, उसे असातावेदनीय कहते हैं / सातावेदनीय के मनोज्ञ शब्द आदि पाठ भेद हैं और इसके विपरीत असातावेदनीय के भी अमनोज्ञ शब्द आदि पाठ भेद हैं / इनका अर्थ पहले लिखा जा चुका है।' (4) मोहनीयकर्म—जिस प्रकार मद्य के नशे में चूर/मनुष्य अपने हिताहित का भान भूल जाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से जीव में अपने वास्तविक स्वरूप एवं हिताहित को पहचानने और परखने की बुद्धि लुप्त हो जाती है, कदाचित् हिताहित को परखने की बुद्धि भी आ जाए तो भी तदनुसार आचरण करने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो पाता, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं / इसके मुख्यत: दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / दर्शनमोहनीय—जो पदार्थ जैसा है, उसे यथार्थरूप में वैसा ही समझना, तत्त्वार्थ पर श्रद्धान करना दर्शन कहलाता है, आत्मा के इस निजी दर्शनगुण का घात (प्रावृत) करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कहते हैं। चारित्रमोहनीय-आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति अथवा उसमें रमणता करना चारित्र है अथवा सावधयोग से निवृत्ति तथा निरवद्ययोग में प्रवत्तिरूप प्रात्मा का परिणाम चारित्र है। प्रात्मा के इस चारित्रगुण को घात करने होने देने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। ___ दर्शनमोहनीयकर्म के तीन भेद हैं—सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय / इन्हें क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्ध शुद्ध कहा गया है / जो कर्म शुद्ध होने से तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व में बाधक तो न हो, किन्तु आत्मस्वभावरूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होने देता, जिससे सक्षम पदार्थों का स्वरूप विचारने में शंका उत्पन्न हो, सम्यक्त्व में मलिनता चल, मल, अगाढदोष उत्पन्न हो जाते हों, वह सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) है / जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, अर्थात्--तत्त्वार्थ के अश्रद्धान के रूप में वेदा जाए उसे मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को तत्त्व (यथार्थ) के प्रति या जिन. प्रणीत तत्त्व में रुचि या अरुचि अथवा श्रद्धा या अश्रद्धा न होकर मिथ स्थिति रहे, उसे सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) या मिश्रमोहनीय कहते हैं। (5) चारित्रमोहनीयकर्म : भेव और स्वरूप-चारित्रमोहनीयकर्म के मुख्य दो भेद हैं--कषायवेदनीय (मोहनीय) और नोकषायवेदनीय (मोहनीय)। कषायवेदनीय-जो कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में बेदा जाता हो, उसे कषायवेदनीय कहते हैं। कषाय का लक्षण विशेषावश्यक भाष्य में इस प्रकार कहा गया है- जो प्रात्मा के गुणों को कषे-नष्ट करे अथवा कष यानी जन्ममरणरूप संसार, उसकी प्राय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं। कषाय के क्रोध, मान, 1. (क) कर्म ग्रन्थ भाग 1, (मरुधरकेसरी व्याख्या), पृ. 65-66 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टोका), भा. 5, पृ. 242 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org