________________ तेईसवां कर्मपद] [1665-2 प्र.] भगवन् ! उच्चगोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1665-2 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है / यथा—जातिविशिष्टता यावत् ऐश्वर्यविशिष्टता। [3] एवं णीयागोए वि / णवरं जातिविहीणया जाव इस्सरियविहीणया। [1665-3] इसी प्रकार नीचगोत्र भी पाठ प्रकार का है। (किन्तु यह उच्चगोत्र से सर्वथा विपरीत है / ) यथा--जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता। 1666. अंतराइए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / जहा-दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए। [1696 प्र.] भगवन् ! अन्तरायकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1666 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-दानान्तराय यावत् वीर्यान्तरायकर्म / विवेचन- उत्तरकर्मप्रकृतियाँ-प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय प्रादि 8 मूल कर्मप्रकृतियों के अनुभाव का वर्णन करने के पश्चात् द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम (सू. 1676 से 1666 तक में) मूल कर्मप्रकृतियों के अनुसार उत्तरकर्मप्रकृतियों के भेदों का निरूपण किया गया है।' उत्तरकर्मप्रकृतियों का स्वरूप - (1) ज्ञानावरणीयकर्म के पांच उत्तरभेद हैं / प्राभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणजो कर्म ग्राभिनिबोधिक ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान को प्रावृत करता है, उसे प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरण कहते हैं / इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण आदि के विषय में समझ लेना चाहिए। (2) दर्शनावरणीयकर्म-पदार्थ के सामान्य धर्म को सत्ता के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं / दर्शन को आवरण करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं / दर्शनावरण के दो भेद-निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क हैं। निद्रापंचक के पांच भेदों का स्वरूप प्रथम उद्देशक में कहा जा चुका है। दर्शनचतुष्क चार प्रकार का है-चक्षुदर्शनावरण-चक्षु के द्वारा वस्तु के सामान्यधर्म के ग्रहण को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण है। अचक्षुदर्शनावरण-चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष स्पर्शन प्रादि इन्द्रियों और मन से होने वाले सामान्यधर्म के प्रतिभास को रोकने वाले कर्म को अचक्षदर्श कहते हैं / अवधिदर्शनावरण-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही रूपी द्रव्य के सामान्यधर्म के होने वाले बोध को रोकने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरण कहते हैं। केवलदर्शनावरण--सम्पूर्ण द्रव्यों के होने वाले सामान्यधर्म के अवबोध को प्रावृत करने वाले को केवलदर्शनावरण कहते हैं / यहाँ यह ज्ञातव्य है कि निद्रापंचक प्राप्त दर्शनशक्ति का उपधातक है, जबकि दर्शनचतुष्क मूल से ही दर्शनलब्धि का घातक होता है।' 1. पण्णवणासुत्त भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), प्र. 367 से 379 तक 2. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 368 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 241-242 (ग) कर्मग्रन्थ भा. 1 (मरुधरकेसरीव्याख्या) प्र. 59 से 61 तक नावरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org