________________ [प्रज्ञापनासूत्र [1664-11 प्र.] भगवन् ! रसनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1694-11 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-तिक्तरसनाम यावत् मधुररसनामकर्म। [12] फासणामे पं० पुच्छा। गोयमा ! अट्टविहे पण्णत्ते / तं जहा–कक्खडफासणामे जाव लुक्खफासणामे / [1694-12 प्र.] भगवन् ! स्पर्शनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-12 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। यथा-कर्कशस्पर्शनाम यावत् रूक्षस्पर्शनामकर्म। [13] अगुरुलहुअणामे एगागारे पण्णत्ते / {1694-13] अगुरुलघुनामकर्म एक प्रकार का कहा गया है / [14] उबघायणामे एगागारे पण्णत्ते / [1664-14] उपघातनामकर्म एक प्रकार का कहा है। [15] पराघायणामे एगागारे पण्णत्ते / [1664-15] पराघातनामकर्म एक प्रकार का कहा है / [16] आणुपुग्विणामे चउबिहे पण्णत्ते। तं जहा–णेरइयाणपुग्विणाम जाव देवाणुपुग्विणाम। . [1664-16] प्रानुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का कहा गया है। यथा-नैरयिकानुपूर्वीनाम यावत् देवानुपूर्वीनामकर्म / [17] उस्सासणामे एगागारे पण्णत्ते। [1664-17] उच्छ्वासनामकर्म एक प्रकार का कहा गया है। [18] सेसाणि सव्वाणि एगागाराई पण्णत्ताई जाव तित्थगरणामे / णवरं विहायगतिणामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पसत्थविहायगतिणामे य अपसत्थविहायगतिणामे य / [1664-18] शेष सब यावत् तीर्थकरनामकर्म तक एक-एक प्रकार के कहे हैं। विशेष यह है कि विहायोगतिनामकर्म दो प्रकार का कहा है / यथा—प्रशस्तविहायोगतिनाम और अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म। 1665. [1] गोए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- उच्चागोए य णीयागोए य / [1695-1 प्र.] भगवन् ! गोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1665-1 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-उच्चगोत्र और नीचगोत्र / [2] उच्चागोए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! अढविहे पण्णत्ते / तं जहा-जाइविसिट्टया जाव इस्सरियविसिट्ठया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org