________________ 22] [प्रज्ञापनासूत्र अर्थात--जिस निद्रा से सरलतापूर्वक जागा जा सके, वह 'निद्रा' है। जो निद्रा बड़ी कठिनाई से भंग हो, ऐसी गाढ़ी नींद को 'निद्रानिद्रा' कहते हैं / बैठे-बैठे आने वाली निद्रा 'प्रचला' कहलाती है तथा चलते-फिरते आने वाली निद्रा 'प्रचला-प्रचला' है। अत्यन्त संक्लिष्ट कर्मपरमाणुओं का वेदन होने पर आने वाली निद्रा स्त्यानद्धि या स्त्यानगृद्धि कहलाती है। इस महानिद्रा में जीव अपनी शक्ति से अनेकगुणी अधिक शक्ति पाकर प्रायः दिन में सोचे हुए असाधारण कार्य कर डालता है। चक्षुदर्शनावरण आदि का स्वरूप--चक्षुदर्शनावरण-नेत्र के द्वारा होनेवाले दर्शन–सामान्य उपयोग का प्रावृत हो जाता / प्रचक्षुदर्शनावरण-नेत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले सामान्य उपयोग का आवृत होना / अवधिदर्शनावरण-अवधिदर्शन का प्रावृत हो जाना / केवलदर्शनावरण-केवलदर्शन को उत्पन्न न होने देना। दर्शनावरणीयकर्मोदय का प्रभाव-ज्ञानावरणीयकर्म की तरह दर्शनावरणीयकर्म में भी स्वयं उदय को प्राप्त अथवा दसरे के द्वारा उदीरित दर्शनावरणीयकर्म के उदय से इन्द्रियों के लब्धि और उपयोग का आवरण हो जाता है। पूर्ववत् दर्शन-परिणाम का उपघात होता है, जिसके कारण जीव द्रष्टव्य-देखने योग्य इन्द्रियगोचर वस्तु को भी नहीं देख पाता, इत्यादि दर्शनावरणीयकर्म के उदय से पूर्ववत् दर्शनगुण की विविध प्रकार से क्षति हो जाती है।' सातावेदनीय और असातावेदनीयकर्म का अष्टविध अनुभाव : कारण, प्रकार और उदयसातावेदनीय और असातावेदनीय दोनों प्रकार के वेदनीयकर्मों के पाठ-आठ प्रकार के अनुभाव बताए गए हैं / इन अनुभावों के कारण तो वे ही ज्ञानावरणीयकर्म-सम्बन्धी अनुभाव के समान हैं। सातावेदनीय के अष्टविध अनुभावों का स्वरूप-(१) मनोज्ञ वेण, वीणा आदि के शब्दों की प्राप्ति, (2) मनोज्ञ रूपों की प्राप्ति, (3) मनोज्ञ इत्र, चन्दन, फल आदि सुगन्धों की प्राप्ति, (4) मनोज्ञ सुस्वादु रसों की प्राप्ति, (5) मनोज्ञ स्पर्शों की प्राप्ति, (6) मन में सुख का अनुभव, (7) वचन में सुखीपन, जिसका वचन सुनने मात्र से कर्ण और मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाला हो और (8) काया का सुखीपन / सातावेदनीयकर्म के उदय से आठ प्रकार के अनुभाव होते हैं। परनिमित्तक सातावेदनीयकर्मोदय–जिन माला, चन्दन आदि एक या अनेक पुद्गलों का प्रासेवन किया (वेदा) जाता है अथवा देश, काल, वय एवं अवस्था के अनुरूप आहारपरिणतिरूप पुद्गल-परिणाम वेदा जाता है अथवा स्वभाव से पुद्गलों के शीत, उष्ण, पातप आदि की वेदना के प्रतीकार के लिए यथावसर अभीष्ट पुद्गल-परिणाम का सेवन किया (वेदा) जाता है, जिससे मन को समाधि---प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह परिनिमित्तक सातावेदनीयकर्मों के उदय से सातावेदनीयकर्म का अनुभाव है। सातावेदनीयकर्म के फलस्वरूप साता-सुख का संवेदन (अनुभव) होता है। सातावेदनीयकर्म के स्वतः उदय होने पर कभी-कभी मनोज्ञ शब्दादि (परनिमित्त) के बिना भी सुखसाता का संवेदन होता है / जैसे-तीर्थकर भगवान् का जन्म होने पर नारक जीव भी किंचित् काल पर्यन्त सुख का वेदन (अनुभव) करते हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 189 से 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org