________________ तेईसवां कर्मपद [21 ज्ञानावरणीय कर्म का दस प्रकार का अनुभाव : क्या, क्यों और कैसे ?--मूलपाठ में ज्ञानावरणीयकर्म का श्रोत्रावरण आदि दस प्रकार का अनुभाव बताया है / श्रोत्रावरण का अर्थ हैश्रोत्रेन्द्रिय-विषयक क्षयोपशम (लब्धि) का आवरण, श्रोत्रविज्ञानावरण का अर्थ है-श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग का प्रावरण / इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के लब्धि (क्षयोपशम) और उपयोग का प्रावरण समझ लेना चाहिए। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों को प्राय: श्रोत्र, नेत्र, घ्राण और रसना-विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। द्वीन्द्रिय जीवों को श्रोत्र, नेत्र और घ्राण-सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। त्रीन्द्रिय जीवों को श्रोत्र और नेत्र-विषयक लब्धि और उपयोग का प्रावरण होता है / चतुरिन्द्रिय जीवों को श्रोत्र-विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। जिनका शरीर कुष्ठ आदि रोग से उपहत हो गया हो, उन्हें स्पर्शेन्द्रिय-सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का प्रावरण होता है। जो जन्म से अन्धे, बहरे, गंगे आदि हैं या बाद में हो गए हैं, नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रियों सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का प्रावरण समझ लेना चाहिए। इन्द्रियों की लब्धि और उपयोग का प्रावरण स्वयं ही उदय को प्राप्त या दूसरे के द्वारा उदीरित ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से होता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-जं वेवेइ पोग्गलं वा इत्यादि, अर्थात्-दूसरे के द्वारा फेंके गए या प्रहार करने में समर्थ काष्ठ, खड्ग प्रादि पुद्गल अथवा बहुत-से पुद्गलों से, जो कि ज्ञान का उपघात करने में समर्थ होते हैं, ज्ञान का या ज्ञान-परिणति का उपघात-आघात होता है अथवा जिस भक्षित आहार या सेवित पेय का परिणाम प्रतिद्ःखजनक होता है, उससे भी ज्ञान-परिणति का उपघात होता है अथवा स्वभाव से शीत, उष उष्ण, धुप मादिरूप पुदगल-परिणाम का जब वेदन किया जाता है, तब उससे इन्द्रियों का उपघात (क्षति होने से ज्ञानपरिणति का भी उपघात होता है, जिसके कारण जीव इन्द्रिय-गोचर ज्ञातव्य वस्तु को नहीं जान पाता / यहाँ तक ज्ञानावरणकर्म का सापेक्ष उदय बताया गया है। इसके पश्चात् शास्त्रकार निरपेक्ष उदय भी बताते हैं-ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलों के उदय से जीव अपने जानने योग्य (ज्ञातव्य) का ज्ञान नहीं कर पाता, जानने की इच्छा होने पर भी जानने में समर्थ नहीं होता अथवा पहले जान कर भी पश्चात ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से नहीं जान पाता अथवा ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जीव का ज्ञान तिरोहित (लुप्त) हो जाता है। यही ज्ञानावरणीयकर्म का स्वरूप है।' दर्शनावरणीयकर्म का नवविध अनुभाव : कारण, प्रकार और उदय-दर्शनावरणीयकर्म के अनुभाव के कारण वे ही बद्ध, स्पृष्ट आदि हैं, जो ज्ञानावरणीयकर्म के अनुभाव के लिए बताये हैं। वे अनुभाव नौ प्रकार के हैं, जिनमें निद्रादि का स्वरूप दो गाथाओं में इस प्रकार बताया गया है सुह-पडिबोहा णिहा, णिहाणिद्दा य दुक्खपडिबोहा। पयला होइ ठियस्स उ, पयल-पयला य चकमतो॥१॥ थीणगिद्धी पुण अइसंकिलिट्ठ-कम्माणवेयणे होई। महणिद्दा दिण-चिंतिय-वावार-पसाहणी पायं // 2 // 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग 5, पृ.१८५-१८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org