________________ तेईसवां कर्मपद [19 - गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहादाणंतराए 1 लाभंतराए 2 भोगतराए 3 उवभोगंतराए 4 वोरियंतराए 5 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा जाव वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम वा, तेसि वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेति / एस णं गोयमा ! अंतराइए कम्मे / एस गं गोयमा ! जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते 8 / [1686 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा। [1686 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा-(१) दानान्तराय, (2) लाभान्तराय, (3) भोगान्त राय, (4) उपभोगान्तराय और (5) वीर्यान्तराय / पदगल का या पदगलों का अथवा पदगल-परिणाम का या स्वभाव से पूदगलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से जो अन्तरायकर्म को वेदा जाता है। यही है गौतम ! वह अन्तरायकर्म, जिसका हे गौतम ! पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है।1८॥ विवेचनबद्ध, पुट्ट आदि पदों के विशेषार्थ-बद्ध-राग-द्वेष-परिणामों के वशीभूत होकर बांधा गया, अर्थात्-कर्मरूप में परिणत किया गया। पुट्ठ-स्पृष्ट- अर्थात् प्रात्म-प्रदेशों के साथ सन्बन्ध को प्राप्त / बद्धफासपृट्र-बद्ध-स्पश-स्पष्ट-- पूनः प्रगाढरूप में बद्ध तथा अत्यन्त स्पर्श से स्पृष्ट, अर्थात् आवेष्टन, परिवेष्टनरूप से अत्यन्त गाढतर बद्ध / संचित--जो संचित है, अर्थात्अबाधाकाल के पश्चात् वेदन के योग्य रूप में निषिक्त किया गया है / चित--जो चय को प्राप्त हुआ है, अर्थात् उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेश-हानि और रसद्धि करके स्थापित किया गया है। उपचित-उपचित, अर्थात जो समानजातीय अन्य प्रकृतियों के दलिकों में संक्रमण करके उपचय को प्राप्त है / विवागपत्त-जो विपाक को प्राप्त हुआ है, अर्थात् विशेष फल देने को अभिमूख हा है। पावागपत्त-आपाकप्राप्त, अर्थात् जो थोड़ा-सा फल देने को अभिमुख हुआ है / फलपत्तफलप्राप्त, अर्थात् अतएव जो फल देने को अभिमुख हुआ है। उदयपत्त-उदय-प्राप्त, जो सामग्रीवशात् उदय को प्राप्त है / जोवेणं कडस्स-जीव के-कर्मबन्धन बद्ध जीव के द्वारा कृत / प्राशय यह है कि जीव उपयोग-स्वभाव वाला होने से रागादि परिणाम से युक्त होता है, अन्य नहीं। रागादि परिणाम से युक्त होकर वह कर्मोपार्जन करता है तथा रागादि परिणाम भी कर्मबन्धन से बद्ध जीव के ही होता है, कर्मबन्धनमुक्त सिद्धजीव के नहीं। अत: जीव के द्वारा कृत का भावार्थ है-कर्मबन्धन से बद्ध जीव के द्वारा उपाजित / कहा भी है 'जोवस्तु कर्मबन्धन-बद्धो, वीरस्य भगवतः कर्ता। सन्तत्याऽनाद्य च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः॥ अर्थात-भगवान महावीर के मत में कर्मबन्धन से बद्ध जीव ही कर्मों का कर्ता माना गया है। प्रवाह की अपेक्षा से कर्मबन्धन अनादिकालिक है / अतएव अनादिकालिक कर्मबन्धनबद्ध जीव (आत्मा) ही कर्मों का कर्ता अभीष्ट है। जीवेणं णिव्यत्तियस्स-जीव के द्वारा निष्पादित. ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org