Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 20] [प्रज्ञापनासून के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि के रूप में व्यवस्थापित किया गया है। प्राशय यह है कि कर्मबन्ध के समय जीव सर्वप्रथम कर्मवर्गणा के साधारण (अविशिष्ट) पुद्गलों को ही ग्रहण करता है अर्थात् उस समय ज्ञानावरणीय आदि भेद नहीं होता। तत्पश्चात् अनाभोगिक वीर्य के द्वारा उसी कर्मबन्ध के समय ज्ञानावरणीय आदि विशेषरूप में परिणत-व्यवस्थापित करता है, जैसे-पाहार को रसादिरूप धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, इसी प्रकार साधारण कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके ज्ञानावरणीय आदि विशिष्ट रूपों में परिणत करना निवर्तन' कहलाता है। जीवेणं परिणामियस्स-जीव के द्वारा परिणामित, अर्थात् ज्ञान-प्रद्वेष, ज्ञान-निह्नव आदि विशिष्ट कारणों से उत्तरोत्तर परिणाम को प्राप्त किया गया। सयं वा उदिण्णस्स आदि कर्म स्वतः ही उदय को प्राप्त हुआ है, अर्थात्-परनिरपेक्ष होकर स्वयं ही विपाक को प्राप्त हुआ है / परेण का उदोरियस्स--अथवा दूसरे के द्वारा उदीरित किया गया है, अर्थात्-उदय को प्राप्त कराया गया है / तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स-अथवा जो (ज्ञानावरणीयादि) कर्म स्व और पर के द्वारा उदय को प्राप्त किया जा रहा है। स्वनिमित्त से उदय को प्राप्त—गति पप्प-गति को प्राप्त करके, अर्थात्-कोई कर्म किसी गति को प्राप्त करके तीव्र अनुभाव वाला हो जाता है, जैसे-असातावेदनीय कर्म नरकगति को प्राप्त करके तीव अनुभाव वाला हो जाता है / नैरयिकों के लिए असातावेदनीय कर्म जितना तीव्र होता है, उतना तिर्यञ्चों आदि के लिए नहीं होता। ठिति पप्प-स्थिति को प्राप्त अर्थातसर्वोत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त अशुभकर्म मिथ्यात्व के समान तीव्र अनुभाव वाला होता है / भवं पप्पभव को प्राप्त करके / प्राशय यह है कि कोई-कोई कर्म किसी भवविशेष को पाकर अपना विपाक विशेषरूप से प्रकट करता है / जैसे--मनुष्यभव या तिर्यञ्चभव को पाकर निद्रारूप दर्शनावरणीयकर्म अपना विशिष्ट अनुभाव प्रकट करता है / तात्पर्य यह है ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म उस-उस गति, स्थिति या भव को प्राप्त करके स्वयं उदय को प्राप्त (फलाभिमुख) होता है। परनिमित्त से उदय को प्राप्त---पोग्गलं पप्प-पुद्गल को प्राप्त करके / अर्थात् काष्ठ, ढेला या तलवार आदि पुद्गलों को प्राप्त करके अथवा किसी के द्वारा फेंके हुए काष्ठ, ढेला, पत्थर, खड आदि के योग से भी असातावेदनीय आदि कर्म का या क्रोधादिरूप कषायमोहनीयकर्म ग्रादि का उदय हो जाता है। पोग्गलपरिणामं पप्प-पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके, अर्थात् पुद्गलपरिणाम के योग से भी कोई कर्म उदय में पा जाता है, जैसे--मदिरापान के परिणामस्वरूप ज्ञानावरणीयकर्म का अथवा भक्षित आहार के न पचने से असातावेदनीयकर्म का उदय हो जाता है। प्रश्न का निष्कर्ष-सू. 1676 के प्रश्न का निष्कर्ष यह है कि जो ज्ञानावरणीयकर्म बद्ध, स्पष्ट आदि विभिन्न प्रकार के निमित्तों का योग पाकर उदय में आया है, उसका अनुभाव (विपाकफल) कितने प्रकार का है ? 2 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग. 5, पृ. 181 से 184 तक 2. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org