________________ 18] (प्रज्ञापनासूत्र [1684-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् अशुभनामकर्म का अनुभाव भी चौदह प्रकार का कहा गया है, (किन्तु वह है इससे विपरीत), यथा--अनिष्ट शब्द आदि यावत् (11) हीन-स्वरता, (12) दीन-स्वरता, (13) अनिष्ट-स्वरता और (14) अकान्त-स्वरता। जो पुद्गल आदि का वेदन किया जाता है यावत् अथवा उनके उदय से दुःखनामकर्म को बेदा जाता है। शेष सब पूर्ववत्, यावत् चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है / / 6 / / 1685. [1] उच्चागोयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० पुच्छा। गोयमा ! उच्चागोयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव प्रदविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं महा-जातिविसिट्ठया 1 कुलविसिट्ठया 2 बलविसिट्ठया 3 रूवविसिट्ठया 4 तविसिट्ठया 5 सुयविसिट्ठया 6 लाभविसिट्ठया 7 इस्सरियविसिट्टया 8 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं जाव अढविहे अणुभावे पण्णत्ते / [1685-1 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1685.1 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म का आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है। यथा-(१) जाति-विशिष्टता, (2) कुल-विशिष्टता, (3) बल-विशिष्टता, (4) रूप-विशिष्टता, (5) तप-विशिष्टता, (6) श्रुत-विशिष्टता, (7) लाभ-विशिष्टता और (8) ऐश्वर्य-विशिष्टता। जो पुद्गल अथवा पुदगलों का, पुद्गल-परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से उच्चगोत्रकर्म को वेदा जाता है, यावत् यही उच्चगोत्रकर्म है, जिसका (उपर्युक्त) आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / [2] णीयागोयस्स गं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! एवं चेव / णवरं जातिविहीणया जाव 1 इस्सरियविहीणया 8 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसि वा उदएणं जाव अट्टविहे मणुभावे पण्णत्ते 7 // [1685.2 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् नीचगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव ? इत्यादि पृच्छा। [1685-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (नीचगोत्र का अनुभाव भी उतने ही प्रकार का है, परन्तु वह विपरीत है) यथा--जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता / पुद्गल का, पुद्गलों का, अथवा पुद्गल-परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उन्हीं के उदय से नीचगोत्रकर्म का वेदन किया जाता है / गौतम यह है-नीचगोत्रकर्म और यह यावत् उसका आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / / 7 / / 1686. अंतराइयस्स गं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org