________________ 24] [प्रज्ञापनासूत्र (विवेक) उत्पन्न होता है कि मनुष्यों की प्रायु शरद् ऋतु के मेघों के समान है, सम्पत्ति पुष्पित वृक्ष के सार के समान है और विषयोपभोग स्वप्न में दृष्ट वस्तुओं के उपभोग के समान है। वस्तुतः इस जगत् में जो भी रमणीय प्रतीत होता है, वह केवल कल्पनामात्र ही है अथवा प्रशम आदि के कारणभूत जिस किसी बाह्य पदार्थ के प्रभाव से सम्यक्त्वमोहनीय आदि मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है, यह परत: मोहनीयकर्मोदय का प्रतिपादन है। स्वतः मोहनीयकर्मोदय-प्रतिपादन जो सम्यक्त्ववेदनीय आदि कर्मपुद्गलों के उदय से मोहनीयकर्म का वेदन (प्रशमादिरूपफल का वेदन) किया जाता है, वह स्वतः मोहनीय कर्मोदय है।' __ प्रायुकर्म का अनुभाव : प्रकार, स्वरूप, कारण-आयुकर्म का अनुभाव चार प्रकार से होता है-नैरयिकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु / परतः आयुकर्म का उदय-प्रायु का अपवर्तन (हास) करने में समर्थ जिस या जिन शस्त्र आदि पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है अथवा विष एवं अन्न आदि परिणामरूप पुद्गलपरिणाम का वेदन किया जाता है अथवा स्वभाव से आयु का अपवर्तन करने वाले शीत-उष्णादिरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, उससे भुज्यमान अायु का अपवर्तन होता है / यह है-- आयुकर्म के परतः उदय का निरूपण / / स्वतः प्रायुकर्म का उदय-नारकायुकर्म आदि के पुद्गलों के उदय से जो नारकायु आदि कम का वेदन किया जाता है, वह स्वत: आयुकर्म का उदय है।' नामकर्म के अनुभावों का निरूपण-नामकर्म के मुख्यतया दो भेद हैं-शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म / शुभनामकर्म का इष्ट शब्द आदि 14 प्रकार का अनुभाव (विपाक) कहा है / उनका स्वरूप इस प्रकार है-इष्ट का अर्थ है-अभिलषित (मनचाहा) / नामकर्म का प्रकरण होने से यहाँ अपने ही शब्द आदि समझने चाहिए। अपना ही अभीष्ट शब्द (वचन) इष्ट शब्द है। इसी तरह इष्ट रूप, गन्ध, रस और स्पर्श समझना चाहिए। इष्ट गति के दो अर्थ हैं-(१) देवगति या मनुष्यगति अथवा (2) हाथी आदि जैसी उत्तम चाल / इष्ट स्थिति का अर्थ है-इष्ट और सहज सिंहासन आदि पर आरोहण / इष्ट लावण्य अर्थात्-अभीष्ट कान्ति-विशेष अथवा शारीरिक सौन्दर्य / इष्ट यशः कोति-विशिष्ट पराक्रम प्रदर्शित करने से होने वाली ख्याति को यश कहते हैं और दान, पुण्य आदि से होने वाली ख्याति को कीति कहते हैं। उत्थानादि छह का विशेषार्थ-शरीर-सम्बन्धी चेष्टा को उत्थान, भ्रमण आदि को कर्म, शारीरिक शक्ति को बल, आत्मा से उत्पन्न होने वाले सामर्थ्य को वीर्य, आत्मजन्य स्वाभिमान-विशेष को पुरुषकार और अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेने वाले पुरुषार्थ को पराक्रम कहते हैं / इष्ट स्वर-वीणा आदि के समान वल्लभ स्वर / कान्तस्वर-कोकिला के स्वर के समान कमनीय स्वर / इष्ट सिद्धि प्रादि सम्बन्धी स्वर के समान जो स्वर बार-बार अभिलषणीय हो, वह प्रियस्वर; तथा मनोवांछित लाभ आदि के तुल्य जो स्वर स्वाश्रय में प्रीति उत्पन्न कराए, वह मनोज्ञ स्वर कहलाता है। शुभनामकर्म के परतः एवं स्वतः उदय का निरूपण-वीणा, वेणु, वर्ण, गन्ध, ताम्बूल, पट्टाम्बर, पालखी, सिंहासन आदि शुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, इन वस्तुओं 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5 पृ. 208 से 210 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 211 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org