Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रजापनासूत्र [1681-1 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को पाकर सातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? [1681-1 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध सातावेदनीयकर्म का यावत् आठ प्रकार का अनु. भाव कहा गया है / यथा-१. मनोज्ञशब्द, 2. मनोज्ञरूप, 3. मनोज्ञगन्ध, 4. मनोज्ञरस, 5. मनोज्ञस्पर्श, 6. मन का सौख्य, 7. वचन का सौख्य और 8. काया का सौख्य / जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का अथवा युद्गल-परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा उनके वेदनीयकर्म को वेदा जाता है। गौतम ! यह है सातावेदनीयकर्म और हे गौतम ! यह (जीव के द्वारा बद्ध) सातावेदनीयकर्म का यावत् पाठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / [2] असातावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० तहेव पुच्छा उत्तरं च / नवरं अमणुण्णा सदा जाव कायदुहया / एस णं गोयमा ! असायावेदणिज्जस्स जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते 3 / [1681-2 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् असातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [1681-2 उ.] इसका उत्तर भी पूर्ववत् (सातावेदनीयकर्मसम्बन्धी कथन के समान)जानना किन्तु (अष्टविध अनुभाव के नामोल्लेख में) 'मनोज्ञ' के बदले सर्वत्र 'अमनोज्ञ' (तथा सुख के स्थान पर सर्वत्र दुःख) यावत् काया का दुःख जानना / हे गौतम ! इस प्रकार असातावेदनीयकर्म का यह अष्टविध अनुभाव कहा गया है / / 3 / / 1682. मोहणिज्जस्स गं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कतिविहे अणुभावे पण्णते ? गोयमा ! मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मत्तवेयणिज्जे 1 मिच्छत्तवेयणिज्जे 2 सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे 3 कसायवेयणिज्जे 4 णोकसायवेयणिज्जे 5 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं मोहणिज्जं कम्मं वेदेति / एस णं गोयमा ! मोहणिज्जे कम्मे। एस णं गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते 4 / [1182 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् मोहनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? [1682 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् मोहनीयकर्म का पाँच प्रकार का अनुभाव कहा गया है। यथा-१. सम्यक्त्व-वेदनीय, 2. मिथ्यात्व-वेदनीय, 3. सम्यग-मिथ्यात्व-वेदनीय, 4. कषाय-वेदनीय और 5. नो-कषाय-वेदनीय / जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का या पुद्गल परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का अथवा उनके उदय से मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है। गौतम ! यह है-मोहनीयकर्म और हे गौतम ! यह मोहनीयकर्म का यावत् पंचविध अनुभाव कहा गया है / / 4 // 1683. प्राउअस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० तहेव पुच्छा। गोयमा ! आउअस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउन्विहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहा-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org