________________ 14] {प्रज्ञापनासूत्र छोड़कर नैरयिक से लेकर वैमानिक तक कोई भी जीव घातिकर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते, इसलिए वे ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का वेदन करते हैं, मनुष्यों में जिनके चार घातिकर्मों का क्षय हो चुका है, वे ज्ञानावरणीयादि चार कर्मों का वेदन नहीं करते, परन्तु जिनके चार घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वे उनका वेदन करते हैं। किन्तु वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मों का शेष जीवों की तरह मनुष्य भी वेदन करता है, क्योंकि ये चार अधातिकर्म मनुष्य में चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक बने रहते हैं / समुच्चय जीवों के कथन की अपेक्षा से संसारीजीव इन चार अघातिकर्मों का वेदन करते हैं, किन्तु मुक्त जीव वेदन नहीं करते / ' पंचमद्वार : कतिविध-अनुभावद्वार 1676. गाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुटुस्स बद्ध-फास-पुटुस्स संचितस्स चियस्स उचितस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं णिव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स गति पप्प ठिति पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णते? गोयमा! णाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणभावे पण्णते। तं जहा–सोयावरणे 1 सोयविण्णाणावरणे २णेत्तावरणे 3 त्तविण्णाणावरणे 4 घाणावरणे 5 घाणविण्णाणावरणे 6 रसावरणे 7 रसविण्णाणावरणे 8 फासावरणे 9 फासविण्णाणावरणे 10 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे वि ण याणइ, जाणित्ता वि ण याणति, उच्छण्णणाणी यावि भवति गाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं। एस णं गोयमा! गाणावरणिज्जे कम्मे / एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते 1 // 1676 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध (बांधे गये), स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, संचित, चित और उपचित किये हुए, किञ्चित् पाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदय-प्राप्त, जीव के द्वारा कृत, जीव के द्वारा निष्पादित, जीव के द्वारा परिणामित, स्वयं के द्वारा उदीर्ण (उदय को प्राप्त), दूसरे के द्वारा उदीरित (उदीरणा-प्राप्त) या दोनों के द्वारा उदीरणा-प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को प्राप्त करके, स्थिति को प्राप्त करके, भव को, पुद्गल को तथा पुद्गलपरिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है ? [1676 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का अनुभाव कहा गया है यथा-(१) श्रोत्रावरण, (2) श्रोत्रविज्ञानावरण, (3) नेत्रावरण, (4) नेत्रविज्ञानावरण, (5) घ्राणावरण, (6) घ्राणविज्ञानावरण, (7) रसावरण, (8) रसविज्ञानावरण, (9) स्पर्शावरण और (10) स्पर्शविज्ञानावरण / 1. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 175-76 (ख) पण्णवणासुतं भा.२, पृ.१३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org