________________ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद]] [13 चतुर्थद्वार : कति-प्रकृतिवेदन-द्वार 1675. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा ! अत्थेगइए वेदेति, अत्थेगइए णो वेदेति / [1675 प्र.] भगवन ! क्या जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता है ? [1675 उ.] गौतम ! कोई जीव (ज्ञानावरणीयकर्म का) वेदन करता है और कोई नहीं करता। 1676. [1] रइए णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा! णियमा वेदेति / [1676-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता (भोगता) है ? [1676-1 उ.] गौतम ! वह नियम से वेदन करता है / [2] एवं जाव वेमाणिए / गवरं मणूसे जहा जीवे (सु. 1675) / [1676-2] (असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकपर्यन्त इसो प्रकार जानना चाहिए, किन्तु मनुष्य के विषय में (सू. 1675 में उक्त) जोव में समान वक्तव्यता समझनी चाहिए। 1677. [1] जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं वेदेति ? गोयमा ! एवं चेव। [1677-1 प्र.] भगवन् ! क्या बहुत जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन (अनुभव करते हैं ? [1677-1 उ.] गौतम ! पूर्ववत् सभी कथन जानना / [2] एवं जाव वेमाणिया। [1677-2] इसी प्रकार (बहुत से नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। 1678. [1] एवं जहा णाणावरणिज्जं तहा दंसणावरणिज्जं मोहणिज्जं अंतराइयं च / [1678-1] जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के सम्बन्ध में कथन किया गया है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म के वेदन के विषय में समझना चाहिए। [2] वेदणिज्जाऽऽउय-णाम-गोयाइं एवं चेव / णवरं मणसे वि णियमा वेदेति / [1678-2] वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म के (जीव द्वारा वेदन के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु मनुष्य (इन चारों कर्मों का) वेदन नियम से करता है / [3] एवं एते एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [1678-3] इस प्रकार एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं / विवेचन–समुच्चयजीव द्वारा किन कर्मों का वेदन होता है, किनका नहीं?--जिस जीव के घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वह ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का वेदन करता है, किन्तु जिसने घातिकर्मों का क्षय कर डाला है, वह इन चारों कर्मों का वेदन नहीं करता है। मनुष्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org