Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 12] [प्रज्ञापनासूत्र [1670 उ.] गौतम ! वह दो कारणों (स्थानों) से (ज्ञानावरणीय-कर्मबन्ध करता है), यथा-राग से और द्वेष से / राग दो प्रकार का कहा है, यथा-माया और लोभ / द्वष भी दो प्रकार का कहा है, यथा-क्रोध और मान / इस प्रकार वीर्य से उपाजित चार स्थानों (कारणों) से जीव ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है। 1671. एवं रइए जाव वेमाणिए / [1671] नैरयिक (से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) 1672. जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्म कतिहि ठाणेहि बंधति ? गोयमा ! दोहि ठाणेहि, एवं चेव / [1672 प्र.] भगवन् ! बहुत जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बांधते हैं ? [1672 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त दो कारणों से (बांधते हैं / ) तथा उन दो के भी पूर्ववत् चार प्रकार समझने चाहिए। 1673. एवं रइया जाव वेमाणिया / [1673] इसी प्रकार बहुत से नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिए / 1674. [1] एवं दसणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1674-1] दर्शनावरणीय (से लेकर) यावत् अन्तरायकर्म तक कर्मबन्ध के ये ही कारण समझने चाहिए। [2] एवं एते एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [1674-2] इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और बहुत्व (बहुवचन) की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं। विवेचन-कितने कारणों से कर्मबन्ध होता है ? द्वितीय द्वार में कर्मप्रकृतियों के बन्ध का क्रम तथा उनके बहिरंग कारण बताये गए हैं, जबकि इस तृतीय द्वार में कर्मबन्ध के अन्तरंग कारणों पर विचार किया गया है।' राग-द्वेष एवं कषाय का स्वरूप-जो प्रीतिरूप हो, उसे राग और जो अप्रीतिरूप हो, उसे द्वेष कहते हैं / राग दो प्रकार का है---माया और लोभ / चूकि ये दोनों प्रीतिरूप हैं, इसलिए राग में समाविष्ट हैं, जबकि क्रोध और मान ये दोनों अप्रीतिरूप हैं, इसलिये इनका समावेश द्वेष में हो जाता है। क्रोध तो अप्रीतिरूप है ही, मान भी दूसरों के गुणों के प्रति असहिष्णुतारूप होने से अप्रीतिरूप है।' निष्कर्ष--(मूलपाठ के अनुसार) जीव अपने वीर्य से उपाजित पूर्वोक्त (दो और) चार कारणों से ज्ञानावरणीय तथा शेष सात कर्मों का बंध करता है / करते हैं / 1. पण्णवणासुत्त भाग 2 (२३वे पद पर विचार) पृ. 125 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. 169 3. वही पृ. 169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org