________________ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद [11 [1666 प्र.] भगवन् ! बहुत-से जीव पाठ कर्मप्रकृतियाँ किस प्रकार बांधते हैं ? [1666 उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना / इसी प्रकार यावत् बहुत-से वैमानिकों तक (समझना चाहिए।) विवेचन-समुच्चय जीव और चौबीस दण्डक में एकत्व-बहुत्व को विवक्षा से अष्टकर्मबन्ध के कारण—प्रस्तुत द्वितीय द्वार में जोव अष्टकर्मबन्ध किस प्रकार करता है ? इसका स्पष्टीकरण करते हए बताया गया है कि ज्ञानावरण का उत्कृष्ट उदय होने पर दर्शनावरणीय कर्म का आगमन होत है अर्थात् जीव दर्शनावरणीयकर्म को उदय से वेदता है / दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोह का और दर्शनमोह के उदय से मिथ्यात्व का और मिथ्यात्व के उदीर्ण होने पर आठों कर्मों का आगमन होता है, अर्थात् जीव मिथ्यात्व के उदय से पाठ कर्मप्रकृतियों का बंध करता है / सभी जीवों में पाठ कर्मों के बन्ध (या आगमन) या यही क्रम है। इन चारों सूत्रों का तात्पर्य यह है कि कर्म से कर्म प्राताबंधता है / ' स्पष्टीकरण-आचार्य मलयगिरि ने इस सूत्र में प्रयुक्त 'खलु' शब्द का 'प्रायः' अर्थ करके इस सूत्रचतुष्टय को 'प्रायिक' माना है / इसका आशय यह है कि कोई-कोई सम्यग्दृष्टि भी आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है / केवल सूक्ष्म-सम्परायगुणस्थानवर्ती संयत आदि पाठ कर्मों का बन्ध नहीं करते।' ज्ञातव्य-यहाँ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध के कारणों में केवल मिथ्यात्व को ही मूल कारण बताया गया है, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को नहीं, किन्तु पारम्परिक कारणों में अविरति, प्रमाद और कषाय का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि जीव ज्ञानावरणादि कर्म बांधता है, उसके (सू. 1670 में) मुख्यतया दो कारण बताए गए हैं-राग और द्वष / राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश हो जाता है। तृतीयद्वार : कति-स्थान-बन्धद्वार 1670. जोवे णं भंते ! गाणावरणिज्ज कम्म कतिहि ठाणेहि बंधति ? गोयमा ! दोहि ठाणेहिं / तं जहा–रागेण य दोसेण य / रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-माया य लोभे य / दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–कोहे य माणे य। इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहि वोरिप्रोवग्गहिएहिं एवं खलु जोवे गाणावरणिज्ज कम्मं बंधति / [1670 प्र.] भगवन् ! जीव कितने स्थानों-कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है ? 1. (क) पण्णवणासुत्तं भाग 2, (२३वें पद का विचार) पृ. 131 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 5, पृ. 166 2. (क) मलयगिरि वत्ति, (प्रज्ञापना) पत्र 454 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 164 3. (क) पण्णवणासुतं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 362, सू. 1670, पृ. 364 तथा पग्णवणासुत्तं भा. 2 पृ. 131 (ख) 'मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः। -तत्वार्थसूत्र (ग) रामो य बोसो विय कम्मबीयं। -उत्तराध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org