________________ मानत-प्राणत-पारण-अच्युत कल्प में जब देवों की इच्छा मन:परिचारणा की होती है तब देवी अपने स्थान पर रहकर ही दिव्य रूप और शृंगार सजाती है और वे देव स्वस्थान पर रहकर ही संतुष्ट होते हैं और देवी भी अपने स्थान पर रहकर ही रूप-लावण्यवती बन जाती है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि कायपरिचारणा की अपेक्षा स्पर्शपरिचारणा में अधिक सुख है, उससे रूपपरिचारणा में अधिक सुख है, उससे शब्दपरिचारणा में अधिक सुख है, उससे मनःपरिचारणा में अधिक सुख है और अपरिचारणा वाले देवों में उससे भी अधिक सुख है / इससे स्पष्ट है कि परिधारणा में सुख का प्रभाव है पर प्राणी चारित्रमोहनीय की प्रबलता के कारण उसमें सुख की अनुभूति करता है। 25 वेदना : एक चिन्तन पैतीसवाँ पद वेदनापद है। चौबीस दण्डकों में जीवों को अनेक प्रकार की वेदना का जो अनुभव होता है, उसकी विचारणा इस पद में की गई है। वेदना के अनेक प्रकार बताये गये हैं, जैसे कि (1) शीत, उष्ण, शीतोष्ण (2) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (3) शारीरिक, मानसिक और उभय (4) साता, असाता, सातासाता (5) दुःखा, सुखा, अदु:खा-असुखा (6) आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी (7) निदा अनिदा प्रादि / संशो की वेदना निदा है और असंज्ञी की बेदना को अनिदा कहा है। ___ शीतोष्ण वेदना के सम्बन्ध में प्राचार्य मलयगिरि ने यह प्रश्न उपस्थित किया है कि उपयोग क्रमिक है तो फिर शीत और उष्ण इन दोनों का युगपत् अनुभव किस प्रकार हो सकता है ? प्रश्न का समाधान करते हुए लिखा है-उपयोग क्रमिक है परन्तु शीघ्र संचारण के कारण अनुभव करते समय क्रम का अनुभव नहीं होता, इसी कारण अागम में शीतोष्ण वेदना का युगपत् अनुभव कहा है। यही बात शारीरिक-मानसिक सातासाता के सम्बन्ध में है। 227 ... प्राचार्य मलयगिरि ने अदुःखा-प्रसुखा वेदना का अर्थ सुख-दुःखात्मिका किया है अर्थात् जिसे सुख संज्ञा न दी जा सके, क्योंकि उसमें दुःख का भी अनुभव है। दुःख संज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि उसमें सुख का भी अनुभव है। साता-प्रसाता तथा सुख और दुःख में क्या भेद है ? इस प्रश्न का उत्तर भी प्राचार्य मलयगिरि ने यह दिया है कि वेदनीयकर्म के पुद्गलों का क्रम-प्राप्त उदय होने जो वेदना होती है वह साता-असाता है पर जब कोई दूसरा व्यक्ति कोई उदीरणा करता है उस समय जो साता-असाता का अनुभव होता है वह सुखदुःख कहलाता है। वेदना के प्राभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी ये दो प्रकार हैं / अभ्युपगम का अर्थ अंगीकार है। हम कितनी ही बातों को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं / तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, वह अभ्युपगम के कारण की जाती है / तप में जो वेदना होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है। उपक्रम का अर्थ कर्म की उदीरणा 225. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 252 226. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 555 227. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 556 228. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 556 229. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 556 [ 65 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org