________________ प्रकाशित हो चुके हैं और अनेक प्रागम शीघ्र प्रकाशित होने वाले हैं। अनेक मनीषियों के सहयोग के कारण यह गुरुतर कार्य सहज और सुगम हो गया है / प्रस्तुत प्रज्ञापना के संस्करण की अपनी विशेषता है। इसमें शुद्ध मूलपाठ, भावार्थ और विवेचन है। विवेचन न बहुत अधिक लम्बा है और न बहुत संक्षिप्त ही / विषय को स्पष्ट करने के लिए प्राचीन टीकाओं का भी उपयोग किया है / विषय बहुत ही गम्भीर होने पर भी विवेचनकार ने उसे सहज, सरल और सरस बनाने के लिए भरसक प्रयास किया है / यह कहा जाय कि विवेचन में गागर में सागर भर दिया गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रज्ञापना जैन-तत्त्व-ज्ञान का बृहत् कोष है। इसमें जैनसिद्धान्त के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का संकलन है। उपांगों में यह सबसे अधिक विशाल है। अंगों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है वही स्थान उपांगों में प्रज्ञापना का है। इसका सम्पादनकार्य सरल नहीं अपितु कठिन और कठिनतर है पर परम आह्लाद है कि वाग देवता के वरद पुत्र श्री ज्ञानमुनिजी ने इस महान कार्य को सम्पन्न किया है / मुनिश्री का प्रकाण्ड पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। उन्होंने गम्भोर पोर सूक्ष्म विषय को अपने चिन्तन की सूक्ष्मता और तीक्ष्णता से स्पर्श किया है। जिससे विषय बिद्वानों के लिए ही नहीं, सामान्य जिज्ञासुमों के लिए भी हस्तामलकवत हो गया है। उन्होंने प्रज्ञापना का सम्पादन और विवेचन कर भारती के भंडार में एक अनमोल भेंट समर्पित की है। तदर्थ वे साधुवाद के पात्र हैं। साथ ही इसमें पण्डित शोभाचंद्रजी भारिल्ल का श्रम भी मुखरित हो रहा है / प्रज्ञापना की प्रस्तावना में बहुत ही विस्तार के साथ लिखना चाहता था, क्योंकि प्रज्ञापना में ऐसे अनेक मौलिक विषय हैं जिन पर तुलनात्मक दष्टि से चिंतन करना आवश्यक था, पर अस्वस्थ हो जाने के कारण चाहते हुए भी नहीं लिख सका। बहुत समय पहले प्रस्तावना प्रारम्भ की और सोचा-प्रथम भाग में जा सकेगी किन्तु स्वास्थ्य के साथ न देने से वह विचार स्थगित रहा / परमश्रद्धय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनि महाराज का मार्गदर्शन भी मेरे लिए अतीव उपयोगी रहा है। मुझे प्राशा ही नहीं अपितु दृढ विश्वास है कि प्रज्ञापना का यह शानदार संस्करण प्रबुद्ध पाठकों के लिए प्रत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। वे इसका स्वाध्याय कर अपने ज्ञान में अभिवद्धि करेंगे / अन्य प्रागमों की तरह यह मागम भी जन-जन के मन को मुग्ध करेगा। --वेवेन्द्रमुनि शास्त्री जैन स्थानक मदनगंज-किशनगढ़ विजयदशमी 16 अक्तूबर 1983 [ 71 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org