________________ यमिक] पूर्वकथन से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है और कर्मबन्ध होता रहता है। ऐसी स्थिति में सहज ही एक प्रश्न उठता है कि प्रात्मा पहले है या कर्म ? यदि आत्मा पहले है तो कर्म का बन्ध उसके साथ जबसे हुआ तबसे उसे 'सादि' मानना पड़ेगा / जैनदर्शन का समाधान है कि कर्म व्यक्ति की अपेक्षा से सादि है और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है / परन्तु कर्म का प्रवाह कब तक चलेगा? सर्वज्ञ के सिवाय कोई नहीं जानता और न ही बता सकता है, क्योंकि भूतकाल के समान भविष्यकाल भी अनन्त है / कुछ व्यक्ति शंका कर सकते हैं कि सभी जीव आत्मामय हैं और आत्मा का लक्षण ज्ञान है, तब फिर सभी जीवों को एक समान ज्ञान क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यही है कि प्रात्मा वस्तत:ज्ञानमय है, किन्त उस पर कर्मा का प्रावरण पड़ाहना है और उस प्रावरण के कारण ही आत्मारूपी सूर्य का ज्ञानगुणरूप प्रकाश कर्मरूपी मेघों से ढंका हुआ है। बादल हटते ही जैसे सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जाता है, वैसे ही कर्मों का आवरण दूर होते ही आत्मा के ज्ञानादि गुण अधिकाधिक प्रकट होने लगते हैं। इस पर से एक प्रश्न फिर समुद्भूत होता है कि कर्म बलवान् है या आत्मा ? बाह्यदृष्टि से कर्म शक्तिशाली प्रतीत होते हैं, क्योंकि कर्म के वशवर्ती होकर प्रात्मा नाना योनियों में जन्ममरण के चक्कर काटती रहती है, परन्तु अन्तर्दृष्टि से देखा जाए तो आत्मा की शक्ति असीम (अनन्त) है। वह जैसे अपनी परिणति से कर्मों का प्रास्रव एवं बन्ध करती है, वैसे ही कर्मों को क्षय करने की क्षमता भी रखती है / कर्म चाहे जितने शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हो, लेकिन आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। कठोरतम पाषाणों की चदानों को मुलायम पानी टुकड़े-टुकड़े कर देता है / वैसे ही प्रात्मा की अनन्त शक्ति कर्मों को चूर-चूर कर देती है / इसके लिए कर्म और आत्मा की पृथक्-पृथक् शक्तियों को पहिचानने के लिए दोनों के लक्षणों को जान लेना आवश्यक है / आत्मा अपने-आप में शुद्ध (निश्चय) रूप में ज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्तिमय (वीर्यमय) है। कर्मों के प्रावरण के कारण उसके ये गुण दबे हुए हैं। कर्मों का आवरण सर्वथा हटते ही चेतना पूर्णरूप से प्रकट हो जाती है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। कर्म का लक्षण है-मिथ्यात्व आदि पांच कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांचों में से किसी के भी निमित्त से आत्मा में एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आता है, जिसे अन्य दर्शनों में अदृश्य, अविद्या, माया, प्रकृति, संस्कार आदि विविध नामों से पुकारा जाता है, अतः वह कर्म ही है, जो रागद्वेष का निमित्त पाकर प्रात्मा के साथ बंध जाता है और समय पाकर वह (कर्म) सुख-दुःखरूप फल देने लगता है। * कर्म के मुख्यतया दो भेद हैं -भावकर्म और द्रव्यकर्म / जीव के साथ रागद्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है तथा वह अचेतन कर्मद्रव्य जब आत्मा के साथ क्षीर-नीरवत् एक होकर सम्बद्ध हो जाता है, तब वह द्रव्यकर्म कहलाता है / यद्यपि जैनदर्शन में भावकर्मबन्ध के मुख्यतया मिथ्यात्वादी पांच कारण एवं संक्षेप में कषाय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org