Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रज्ञापनासूत्रे व्रतादि की साधना की व्यर्थता। इन भूलों का परिमार्जन करने और संसार को वस्तुस्थिति से अवगत कराने हेतु भगवान् महावीर ने वाणी से ही नहीं अपने कर्म-क्षय के कार्यों से कर्मसिद्धान्त की यथार्थता का प्रतिपादन किया। तथागत बुद्ध कर्म और उसके विपाक को मानते थे, किन्तु उनके क्षणिकवाद के सिद्धान्त से कर्मविपाक की उपपत्ति कथमपि नहीं हो सकती। स्वकृत कर्म का स्वयं फलभोग तथा परकृत कर्म के फलभोग का स्व में प्रभाव तभी घटित हो सकता है, जबकि प्रात्मा को न तो एकान्तनित्य माना जाए और न ही एकान्त क्षणिक / कुछ नास्तिक दर्शनवादी पुनर्जन्म, परलोक को मानते ही नहीं थे। उनके मतानुसार शुभ तथा अंशभ कर्म का शुभ एवं प्रशभ फल घटित ही नहीं होता। तब फिर अध्यात्मसाधना का अर्थ क्या है ? इस प्रश्न के यथार्थरूप से समाधान के लिए भगवान् महावीर ने कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया। क्योंकि कर्म न हों तो जन्म-जन्मान्तर तथा इहलोक-परलोक का सम्बन्ध घट ही नहीं सकता। जो लोग यह कहते हैं, जीव अज्ञानी है, वह स्वकृत कर्म के दुःखद फल को स्वयं भोगने में असमर्थ नि बाला इंश्वर है, ऐसा मानना चाहिए / वे कर्म की विशिष्ट शक्ति से अनभिज्ञ हैं / यदि कर्मफलप्राप्ति में दूसरे को सहायक माना जाएगा तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जाएँगे तथा जीव के स्वकृत पुरुषार्थ की हानि भी होगी और उसमें सत्कार्यों में प्रवृत्ति, असत्कार्यों से निवृत्ति के लिए उत्साह नहीं जागेगा। यही कारण है कि भगवान महावीर ने प्रस्तुत 23 वें कर्मप्रकृतिपद में ईश्वर या किसी भी शक्ति को सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति या विनाशकर्ता और कर्मफलप्रदाता के रूप में न मान कर स्वयं जीव को ही कर्मबन्ध करने, कर्मफल का वेदन करने तथा स्वकृतकर्मों तथा कर्मक्षय का फल भोगने का अधिकारी बताया है / जीव अनादिकाल से स्वकृतकर्मों के वश होकर विविध गतियों, योनियों आदि में भ्रमण कर रहा है। जीव अपने ही शुभाशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है, स्वतः सुखदुःखादि पाता है। ___ कुछ दार्शनिक कर्मसिद्धान्त पर एक आक्षेप यह करते हैं कि प्रस्तुत 23 वें पद के अनुसार समस्त जीवों के साथ कर्म सदा से लगे हुए हैं और कर्म एवं प्रात्मा का अनादि सम्बन्ध है, तो फिर कर्म का सर्वथा नाश कदापि नहीं हो सकेगा। लेकिन कर्मसिद्धान्त के बारे में ऐसा एकान्त सार्वकालिक नियम नहीं है / इसी कारण आगे चलकर 23 3 पद के दूसरे उद्देशक में स्पष्ट बताया गया है कि जितने भी कर्म हैं, सबकी एक कालमर्यादा है। वह काल परिपूर्ण होने पर उस कर्म का क्षय हो जाता है। स्वर्ण और मिट्टी का दूध और घी का प्रवाहरूप से अनादि-सम्बन्ध होते हुए भी प्रयत्न-विशेष से वे पृथक्-पृथक् होते देखे जाते हैं / उसी प्रकार प्रात्मा और कर्म का प्रवाहरूप से अनादि-सम्बन्ध होने पर भी, व्यक्तिशः अनादि-सम्बन्ध नहीं है। प्रात्मा और कर्म के अनादि-सम्बन्ध का भी अन्त होता है / पूर्वबद्ध कर्मस्थिति पूर्ण होने पर वह आत्मा से पृथक् हो जाता है / नवीन कर्मों का बन्ध होता रहता है / इस प्रकार प्रवाहरूप से कर्म के अनादि होने पर भी तप, संयम, व्रत प्रादि के द्वारा कर्मों का प्रवाह एक दिन नष्ट हो जाता है और आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org