________________ प्राथमिक] इस दृष्टि से 23 वें से 27 वें पद तक कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में उद्भूत होने वाले विविध प्रश्नों का समाधान किया गया है। कर्मबन्ध के चार प्रकारों की दृष्टि से यहाँ यथार्थ एवं स्पष्ट समाधान किया गया है। द्रव्यकर्मों के बन्ध को प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभावबन्ध, इन चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। बद्ध कर्मपरमाणुओं का आत्मा के ज्ञानादि गुणों के आवरण के रूप में परिणत होना, उन कर्मपुद्गलों में विभिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न होना, प्रकृतिबन्ध है। कर्मविपाक (कर्मफल) के काल की अवधि (जधन्य-उत्कृष्ट कालमर्यादा) उत्पन्न होना स्थितिबन्ध है। गृहीत पुद्गलपरमाणुओं के समूह का कर्मरूप में प्रात्मप्रदेशों के साथ न्यूनाधिक रूप में बद्ध होना-प्रदेशबन्ध है। इसमें भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मपरमाणुओं (कर्मप्रदेशों) की संख्या का निर्धारण होता है और कर्मरूप में गृहीत पुद्गलपरमाणुओं के फल देने की शक्ति की तीव्रता-मन्दता आदि अनुभाग (रस) बन्ध है। कर्म के सम्बन्ध में समुद्भूत होने वाले कुछ प्रश्नों का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक है, जिनका समाधान इन पदों में दिया गया है। मूलकर्म कितने हैं ? उनके उत्तरभेद कितने हैं ? अात्मा का कर्मों के साथ बन्ध कैसे और किन-किन कारणों से होता है ? कर्मों में फल देने की शक्ति कैसे पैदा हो जाती है? कौन-सा कर्म कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक प्रात्मा के साथ लगा रहता है ? आत्मा के साथ लगा हुआ कर्म कितने समय तक फल देने में असमर्थ रहता है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं ? यदि हाँ, तो कैसे, किन आत्मपरिणामों से ? एक कर्म के बन्ध के समय, दूसरे किन कर्मों का बन्ध या वेदन हो सकता है ? किस कर्म के वेदन के समय अन्य किन-किन कर्मों का वेदन होता है ? इस प्रकार बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता आदि अवस्थाओं की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले नाना प्रश्नों का सयुक्तिक विशद वर्णन किया गया है। * सर्वप्रथम तेईसवें 'कर्म-प्रकृति-पद' के प्रथम उद्देशक में पांच द्वारों के माध्यम से कर्म-सिद्धान्त की चर्चा की गई है। प्रथम द्वार में मूल कर्म-प्रकृति की संख्या और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में उनके सदभाव की प्ररूपणा है। दूसरे द्वार में बताया गया है कि समच्चय जीव तथा दण्डकवर्ती जीव किस प्रकार आठ कर्मों को बाँधते हैं ? तीसरे द्वार में बताया गया है कि ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को एक या अनेक समुच्चय जीव तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीव, राग और द्वेष (जिनके अन्तर्गत क्रोधादि चार कषायों का समावेश हो जाता है), इन दो कारणों से बांधते हैं। चौथे द्वार में यह बताया गया है कि समुच्चय जीव या चौवीस दण्डकवर्ती जीव एकत्व एवं बहुत्व की अपेक्षा से, ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों में किन-किन कर्मों का वेदन करता है ? इसके पश्चात् पंचम कतिविध-अनुभाव द्वार में विस्तृत रूप से बताया गया है कि जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध-स्पृष्ट, संचित, चित, उपचित, आपाक-प्राप्त, विपाक-प्राप्त, फलप्राप्त, उदय-प्राप्त, कृत, निष्पादित, परिणामित, स्वत: या परतः उदीरित, उभयत: उदीरणा किये जाते हुए गति, स्थिति और भव की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि किस-किस कर्म के कितनेकितने विपाक या फल हैं ? तेईसवें पद के द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम प्रष्ट कर्मों की मूल और उत्तर-प्रकृतियों के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है / तदनन्तर ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मों की (भेद-प्रभेदसहित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org