________________ [प्रज्ञापनासूत्र योग के दो कारण बतलाए हैं, तथापि तेईसवें पद के प्रथम उद्देशक में राग और द्वष को ही भावकर्मबन्ध का कारण बतलाया है। चार कषायों को इन्हीं दो के अन्तर्गत कर दिया गया है / कोई भी मानसिक या वैचारिक प्रवृत्ति हो, या तो वह राग (प्रासक्तिरूप) या वह द्वेष (घृणा या क्रोधादि) रूप होगी। अतः रागमूलक या द्वेषमूलक प्रवृत्ति को ही भावकर्मबन्ध का कारण माना गया है। प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी राग-द्वेषात्मक वासना के कारण अव्यक्तरूप से भावकर्म द्रव्यकर्मरूप में श्लिष्ट होते रहते हैं। कर्म की बंधकता (कर्मलेप पैदा करने की शक्ति) भी रागद्वेष के सम्बन्ध से ही है। * रागद्वेषजनित मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार क्रोधादिकषायवश शारीरिक, वाचिक क्रिया होती है, वही द्रव्यकर्मोपार्जन का कारण बनती है। जो क्रिया कषायजनित होती है, उससे होने वाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है, किन्तु कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल और अल्पस्थितिक होता है / वह थोड़े-से प्रयत्न एवं समय में नष्ट किया जा सकता है। वस्तुतः जब प्राणी मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से तद्योग्य कर्मपुद्गलपरमाणुओं का ग्रहण होता है / इन्हीं गृहीत पुद्गल-परमाणु-समूह का कर्मरूप से प्रात्मा के साथ बद्ध होना द्रव्यकर्म कहलाता है। वस्तुतः जिसने जैसा कर्म किया है, उसके अनुसार वैसी-वैसी उसकी मति और परिणति होती * रहती है / पूर्वबद्ध कर्म उदय में आता है तो आत्मा की परिणति को प्रभावित करता है और उसी के अनुसार नवीन कर्मबन्ध होता रहता है। यह चक्र अनादिकाल से (प्रवाहरूप से) चला पा रहा है। प्रात्मा निश्चयदृष्टि से ज्ञान-दर्शनमय शुद्ध होने पर भी अपनी कषायात्मक वैकारिक प्रवृत्ति या क्रिया द्वारा ऐसे संस्कारों (भावकर्मों) का आकर्षण करती रहती है और कर्मपुद्गलों को भी तदनुसार ग्रहण करती रहती है। इस ग्रहण करने की प्रक्रिया में मन-वचन-काय का परिस्पन्दन सहयोगी बनता है। कषाय या रागद्वेष की तीव्रता-मन्दता के अनुसार ही जीव को उन-उन कर्मों का बन्ध होता है तथा बन्धे हए कर्मों के अनुसार ही तत्काल या कालान्तर में सुख-दुःखरूप शुभाशुभ फल प्राप्त होता रहता है। किन्तु जब यह प्रात्मा अपनी विशिष्ट ज्ञानादि शक्ति से समस्त कर्मों से रहित होकर पूर्णरूप से-कर्ममुक्त हो जाती है तब पुनः कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं होते और न अपना फल देते हैं। कर्मसिद्धान्तानुसार एक बात स्पष्ट है कि प्रात्मा ही अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार वैसे स्वभाव और परिस्थिति का निर्माण करती है, जिसका प्रभाव बाह्य सामग्री पर पड़ता है और तदनुसार परिणमन होता है, तदनुसार ही कर्मफल स्वतः प्राप्त होता है। कर्म के परिपाक का जब समय प्राता है, तब उसके उदयकाल में जैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सामग्री होती है, वैसा ही उसका तीव्र, मन्द, मध्यम फल प्राप्त होता है। इस फलप्राप्ति का प्रदाता कोई अन्य नहीं है / कर्मफल प्रदाता दूसरे को माना जाए तो स्वयंकृत कर्म निरर्थक हो जाएँगे, तथा जीव के स्वपुरुषार्थ की भी हानि होगी। फिर तो सत्कार्यों में प्रवृत्ति और असत्कार्यों से निवत्ति के लिए न तो उत्साह जाग्रत होगा, न पुरुषार्थ ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org