________________ * * तेवीसइमओ सत्तावीसइमपज्जंताई पयाई तेईसवें पद से सत्ताईसवें पद पर्यन्त प्राथमिक ये प्रज्ञापनासूत्र के तेईसवें से सत्ताईसवें पद तक पांच पद हैं / इनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं(२३) कर्मप्रकृतिपद, (24) कर्मबन्धपद, (25) कर्मबन्ध-वेदपद, (26) कर्मवेद-बन्धपद और (27) कर्मवेद-वेदकपद / ये पांचों पद कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादक हैं और एक-दूसरे से परस्पर संलग्न हैं। जैनदर्शन तार्किक और वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। जैनदर्शन में प्रत्येक प्रात्मा को निश्चयदष्टि से परमात्मतुल्य माना गया है, फिर वह आत्मा पृथ्वी, जल या वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग-पशु-पक्षी-मानवादि रूप हो, तात्त्विक दृष्टि से समान है। प्रश्न हो सकता है, जब तत्त्वतः सभी जीव (आत्मा) समान हैं, तब उनमें परस्पर वैषम्य क्यों ? एक धनी, एक निर्धन, एक छोटा, एक विशालकाय, एक बुद्धिमान् दूसरा मंदबुद्धि, एक सुखी, एक दुःखी, इत्यादि विषमताएँ क्यों हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कर्मसिद्धान्त का जन्म हुआ। कर्माधीन होकर ही जीव विभिन्न प्रकार के शरीर, इन्द्रिय, गति, जाति, अंगोपांग आदि की न्यूनाधिकता वाले हैं / आत्मगुणों के विकास की न्यूनाधिकता का कारण भी कर्म ही है / कर्मसिद्धान्त से तीन प्रयोजन मुख्य रूप से फलित होते हैं (1) वैदिकधर्म की ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता के भ्रान्त अंश को दूर करना / (2) बौद्धधर्म के एकान्त क्षणिकवाद को युक्तिविहीन बताना। (3) प्रात्मा को जडतत्त्व से भिन्न स्वतंत्र चेतन के रूप में प्रतिष्ठापित करना / भगवान महावीरकालीन भारतवर्ष में जैन, बौद्ध और वैदिक, ये तीन धर्म की मुख्य धाराएँ थीं। वेदानुगामी कतिपय दर्शनों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ मानते हुए भी उसे जगत् का कर्ता-हर्ता-धर्ता माना जाता था। कर्म जड होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फल भुगवा नहीं सकते, अतः जीव को अच्छे-बुरे कर्मों का फल भुगवाने वाला ईश्वर ही है। जीव चाहे जितनी उच्चकोटि का हो, वह ईश्वर हो नहीं सकता। जीव जीव हो रहेगा, ईश्वर नहीं होगा। जीव का विकास ईश्वर की इच्छा या अनुग्रह के बिना नहीं हो सकता। इस प्रकार कई दर्शन तो जीव को ईश्वर के हाथ की कठपुतली मानने लगे थे। इस प्रकार के भ्रान्तिपूर्ण विश्वास में चार बड़ी भूलें थीं--(१) कृतकृत्य ईश्वर का निष्प्रयोजन सृष्टि के प्रपंच में पड़ना और रागद्वेषयुक्त बनना। (2) प्रात्मा की स्वतंत्रता और शक्ति का दब जाना। (3) कर्म की शक्ति की अनभिज्ञता और (4) जप, तप संयम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org