________________ आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि 'प्रकर्षेण ज्ञाप्यन्ते अनयेति प्रज्ञापना' अर्थात् जिसके द्वारा जीव-अजीव आदि पदार्थों का ज्ञान किया जाय वह प्रज्ञापना है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में प्रज्ञापना को उपांग के रूप में उल्लिखित किया है पर प्राचार्य मलयगिरि ने उनसे आगे बढ़कर समवायाङ्ग का उपांग प्रज्ञापना को बताया है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि समवायाङ्ग में निरूपित अर्थ का प्रतिपादन प्रज्ञापना में हुअा है, उन्होंने यह भी लिखा है कि कहा जा सकता है कि समवायाङ्ग निरूपित अर्थ का प्रज्ञापना में प्रतिपादन करना उचित नहीं, पर यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना में समवायाङ्ग प्रतिपादित अर्थ का ही विस्तार है और यह विस्तार मंदमति शिष्य के विशेष उपकार के लिए किया गया है। इसलिए इसकी रचना पूर्ण सार्थक है / विज्ञों का यह मानना है कि अमुक अंग का अमुक उपांग है, इस प्रकार की व्यवस्था प्राचार्य हरिभद्र के पश्चात् और प्राचार्य मलयगिरि के पूर्व हुई है / हम यह पूर्व ही लिख चुके हैं कि मलयगिरि की वृत्ति का मूलाधार आचार्य हरिभद्र को प्रदेशव्याख्या रही है तथापि प्राचार्य मलयगिरि ने अन्य अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। 242 उदाहरण के रूप में प्राचार्य हरिभद्र ने स्त्री तीर्थंकर बन सकती है या नहीं? इसके लिए सिद्धप्राभूत का संकेत किया है जबकि प्राचा मलयगिरि ने स्त्रीमुक्त होती है या नहीं? उस सम्बन्ध में पूर्व यक्ष और उत्तरपक्ष की रचना कर विस विश्लेषण किया है। 243 इसी प्रकार सिद्ध के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्य की चर्चा करके अन्त में जैनदर्शन की दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप की संस्थापना की है / 144 सामान्य रूप से प्राचार्य मलयगिरि ने व्याख्या के सम्बन्ध में विभिन्न चिन्तकों के मतभेद का सूचन किया है पर कुछ स्थलों पर उन्होंने अपना स्वतन्त्र मत भी प्रकट किया है और जहाँ उन्हें लगा कि यह उलझन भरा है वहाँ उन्होंने अपना मत न देकर केवलिगम्य कहकर सन्तोष किया है। यह कथन उनकी भवभीरुता का द्योतक है। आज जिन विषयों में कुछ भी नहीं जानते उस विषय में भी जो लोग अधिकार के साथ अपना मत दे देते हैं, उन्हें उस महान प्राचार्य से प्रेरणा लेनी चाहिये। प्राचार्य मलयगिरि ने कितने ही विषयों की चर्चा तर्क और श्रद्धा दोनों ही दृष्टि से की है। जैसेप्रज्ञापना की रचना श्यामाचार्य ने की तथापि इसमें श्रमण भगवान महावीर और गणधर गौतम का संवाद कैसे ? भगवान् महावीर और गौतम का संवाद होने पर भी इसमें अनेक मतभेदों का उल्लेख कैसे ? सिद्ध के पन्द्रह भेदों की व्याख्या के साथ उनकी समीक्षा भी की है। स्त्रियाँ मोक्ष पा सकती हैं, वे षडावश्यक, कालिक और उत्कालिक सूत्रों का अध्ययन कर सकती हैं, निगोद की चर्चा, म्लेच्छ की व्याख्या, असंख्यात आकाश प्रदेशों में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का समावेश किस प्रकार होता है ? भाषा के पुद्गलों के ग्रहण और निसर्ग की चर्चा, अनन्त जीव होने पर भी शरीर असंख्यात कैसे? आदि विविध विषयों पर कलम चलाकर प्राचार्य ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का ज्वलन्त परिचय दिया है। अनेक विषयों की संगति बिठाने हेतु प्राचार्य ने नयष्टि का अवलम्ब लेकर व्याख्या की है और अनेक स्थलों पर पूर्वाचार्यों का और पूर्व संप्रदायों की मान्यताओं का उल्लेख किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान 16000 श्लोक प्रमाण है / 242. (क) पाणिनिः स्वप्राकृतव्याकरणे-पत्र 5, पत्रा 365 (ख) उत्तराध्य. नियुक्ति माथा-पत्र 12 / जीवा भिगमणि प. 308 आदि। 243. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना भाग 2, पृ. 154-157 244. देखिए-पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना 2,157 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org