________________ - जब वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और दलिक प्रायुकर्म की स्थिति और दलिकों से अधिक हों तब उन सभी को बराबर करने के लिये केवलिसमुद्घात होता है / अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रायु अवशेष रहने पर यह समुद्घात होता है। केवलिस मुद्घात का कालप्रमाण पाठ समय का है। प्रथम समय में मात्मा के प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाला जाता है। उस समय उनका प्राकार दण्ड सहश होता है। प्रात्मप्रदेशों का यह दण्डरूप ऊँचाई में लोक के ऊपर से नीचे तक प्रर्थात चौदह रज्जू लम्बा होता है। उसकी मोटाई केवल स्वयं के शरीर बराबर होती हैं। दूसरे समय में उस दण्ड को पूर्व, पश्चिम या उत्तर, दक्षिण में विस्तीर्ण कर उसका प्राकार कपाट के सदश बनाया जाता है। तृतीय समय में कपाट के आकार के प्रात्मप्रदेशों को मंथाकार बनाया जाता है अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों तरफ फैलाने से उसका आकार मथनी का सा बन जाता है। चतुर्थसमय में विदिशाओं के खाली भागों को प्रात्मप्रदेशों से पूर्ण करके उन्हें सम्पूर्ण लोक में व्याप्त किया जाता है। पांचवें समय में प्रात्मा के लोकव्यापी प्रात्मप्रदेशों को संहरण के द्वारा फिर मथाकार बनाया जाता है / छठे समय में मथाकार से कपाटाकार बना लिया जाता है। सातवें समय में आत्मप्रदेश फिर दण्ड रूप में परिणत होते हैं और पाठवें समय में पुन: वे अपनी असली स्थिति में आ जाते हैं। वैदिक परम्परा 235 के ग्रन्थों में प्रात्मा की व्यापकता के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। उसकी तुलना हम केवलिसमुद्घात के चतुर्थ समय में जब प्रात्मा लोकव्यापी बन जाता है, उससे कर सकते हैं। व्याख्यासाहित्य इस प्रकार प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में विपुल द्रव्यानुयोग सम्बन्धी सामग्री का अपूर्व संकलन है / इस प्रकार का संकलन अन्यत्र दुर्लभ है / प्रज्ञापना का विषय गम्भीरता को लिए हए है। प्रागमों के गम्भीर रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा व्याख्या साहित्य का निर्माण किया गया। प्रज्ञापना पर निरुक्ति और भाष्य नहीं लिखे गए / प्राचार्य हरिभद्र ने प्रज्ञापना की प्रदेश-व्याख्या में प्रज्ञापना की अवणि का उल्लेख किया है। 36 इससे यह स्पष्ट है प्राचार्य हरिभद्र के पूर्व इस पर कोई न कोई अवचुणि अवश्य रही होगी, क्योंकि व्याख्या में यत्र-तत्र 'एतदुक्त भवति', 'किमक्तं भवति' 'अयमत्र भावार्थ:,' 'इदमत्र हृदयम्,' 'एतेसि भावणा' शब्द प्रयुक्त हुए हैं / प्राचार्य मलयगिरि 3' ने भी अपनी वृत्ति में चूणि का उल्लेख किया है। यहाँ यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि प्रवचूणि या चूणि जो प्रज्ञापना पर रचित थी उसका रचयिता कौन था? मुनिश्री पुण्यविजय जी महाराज का अभिमत है कि चणि के रचयिता प्राचार्य हरिभद्र के गुरु ही होने चाहिए, क्योंकि व्याख्या में ये शब्द प्रयुक्त हए हैं -'एवं तावत पूज्यपादा पाचक्षते,' 'गुरवस्तु', 'इह तु पूज्या:', 'अत्र गुरवो व्याचक्षते' / पुण्यविजय जी महाराज का यह भी मन्तव्य है कि प्रज्ञापना पर प्राचार्य हरिभद्र के गुरु जिनभट्ट के अतिरिक्त अन्य प्राचार्यों की गयख्याएँ भी होनी चाहिये। 35 पर वे प्राज उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए इनका क्या रूप था? यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता / 235. (क) विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतःपात् / श्वेताश्वतरोपनिषद् 3-3, 111-5 (ख) सर्वत: पाणिपादं तत्, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् / ___ सर्वतः श्रुतिमल्लोके, सर्वमावृत्य तिष्ठति / / -भगवद् गीता, 13, 13 236. अलमतिप्रसङ्गन अवणिकामात्रमेतदिति / -प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, पृ. 28, 113 237. प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्र 269-271 238. प्रज्ञापना प्रस्तावना, पृ. 152 [ 67 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org