________________ का हेतु है / शरीर में जब रोग होता है तो उससे कर्म की उदीरणा होती है इसलिए वह कर्म की उदीरणा का उपक्रम है / उपक्रम के निमित्त से होने वाली वेदना प्रौपक्रमिकी वेदना है / 230 समुद्धात : एक चिन्तन छत्तीसवें पद का नाम समुदघालपद है। शरीर से बाहर प्रात्मप्रदेशों के प्रक्षेप को समुद्घात कहते हैं।२३' दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सम्भूत होकर प्रात्मप्रदेशों के शरीर से बाहर जाने का नाम समुद्धात है / 232 समुद्घात के सात प्रकार बताये हैं, जो इस प्रकार हैं - 9. वेदनासमुद्घात, असातावेदनीय कर्म के प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 2. कषायसमुद्घात, कषायमोहकर्म के आश्रित होने वाला समुद्धात / 3. मारणान्तिकसमुद्घात, आयुष्य के अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर उसके प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 4. वैक्रियसमुद्घात, क्रियनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात / 5. तेजससमुद्घात, तैजसनामकर्म के प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 6. माहारकसमुद्घात, आहारकनामकर्म के प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 7. केवलिसमुद्धात, बेदनीय, नाम गोत्र और प्रायुष्य कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात / __ इन सास समुद्घातों में से किस जीव में कितने समुद्घात पाए जा सकते हैं, इस पर विचार करते हुए लिखा है-नरक में प्रथम चार समुद्धात हैं। देवों में और तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों में प्रथम पाँच समुद्घात हैं। वायु के अतिरिक्त शेष एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में प्रथम तीन समुद्घात हैं। वायुकाय में प्रथम चार समुद्घात हैं। मनुष्य में सातों हो समुद्घात हो सकते हैं। जीवों की दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से अल्पबहूत्व पर चिंतन करते हुए बताया है कि जघन्य संख्या पाहारकसमुद्घात करने वाले की है और सबसे अधिक संख्या वेदनासमुद्घात करने वाले की है। उनसे अधिक जीव ऐसे हैं जो समुदधात नहीं करते / इसी तरह दण्डकों के सम्बन्ध में भी अल्पबहुत्व की दृष्टि से चिंतन किया है। कषायसमुद्घात के चार प्रकार किए गये हैं और दण्डकों के प्राधार पर विचार किया गया है। पूर्व के छहों समुद्घात छानस्थिक हैं। इन समुद्घातों में प्रवगाहना और स्पर्श कितने होते हैं तथा कितने काल तक ये रहते हैं ? समुद्घात के समय जीव को कितनी क्रियाएँ होती हैं ? इन सभी प्रश्नों पर विचार किया है। केवलिसमुद्घात के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। केवलिसमुदघात करने के पूर्व एक विशेष क्रिया होती है जो शुभ योग रूप होती है। उसकी स्थिति मन्तमुहूर्त प्रमाण है / उसका कार्य है उदयावलिका में कर्मदलिकों का निक्षेप करना। यह क्रिया प्रावर्जीकरण कहलाती है। मोक्ष की ओर प्रात्मा प्राजित यानी झकी हुई होने से इसे प्रावजितकरण भी कहते हैं। केवलज्ञानियों के द्वारा अवश्य किए जाने के कारण इसे प्रावश्यककरण भी कहते हैं। विशेषावश्यकभाष्य, पंचसंग्रह प्रादि में ये तीनों नाम प्राप्त होते हैं / 23 दिगम्बर परम्परा के साहित्य में केवल पावजितकरण नाम ही मिलता है / 234 230. अभ्युपगमेन -- अङ्गीकारेण निर्वृत्ता तत्र वा भवा प्राभ्युपग मिकी तया-- शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन निवत्ता तत्र वा भवा प्रौपक्रमिकी तयाज्वरातीसारादिजन्यया / -स्थानांग वत्ति पत्र 84 231. समुदधननं समुद्घात: शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः। - स्थानांग अभयदेव वत्ति 380 232. हन्तर्गमिक्रियात्वात् सम्भूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्हननं समुद्घातः / - तत्त्वार्थवात्तिक 1, 20, 12 233. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3050-51 (ख) पंचसंग्रह, द्वार 1, गाथा 16 की टीका 234. लब्धिसार, गा. 617 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org