________________ प्राचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना की टीका में लिखा है कि एकेन्द्रिय में भी अपट मन है क्योंकि मनोलब्धि सभी जीवों में है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक अपटु मन है तो फिर एकेन्द्रिय में ही प्रनाभोगनिर्वर्तित पाहार कहा है और शेष में क्यों नहीं ? इस प्रश्न का सम्यक् समाधान नहीं है। प्रागमप्रभाक्क पुण्यविजय जी महाराज का ऐसा मन्तव्य है कि संभवतः रसेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होता है इसलिए उसे खाने की इच्छा होती है / अतएव उसमें प्राभोगनिर्वतित पाहार माना गया हो और जिसमें रसेन्द्रिय का अभाब है उसमें अनाभोगनिर्वतित माना हो। इस प्रकरण में आहार ग्रहण करने वाला व्यक्ति आहार के पुद्गलों को जानता है, देखता है और जानता भी नहीं, देखता भी नहीं, प्रादि विकल्प कर उस पर चिन्तन किया है। अध्यवसाय के सम्बन्ध में भी प्रासंगिक चर्चा की गई है। मुख्य रूप से अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं-एक प्रशस्त दूसरा अप्रशस्त / तरतमता की दृष्टि से उन अध्यवसायों के असंख्यात भेद होते हैं / चौबीसों दण्डकों के जीवों के अध्यवसायों की चर्चा की गई है। देवों की परिचारणा के सम्बन्ध में चार विकल्प बताए गए हैं१. देव सदेवी सपरिचार 2. देव सदेवी अपरिचार 3. देव अदेवी सपरिचार 4, देव अदेवी अपरिचार भवनपति, बाणव्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान, इनमें देवियां हैं। इसलिए प्रथम विकल्प है। यहां पर देव और देवियों में कायिक परिचारणा है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक केवल देव ही होते हैं, देवियां नहीं होती / तथापि उनमें देवियों के अभाव में भी परिचारणा है। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में देव हैं, देवियां नहीं हैं और परिचारणा भी नहीं है। द्वितीय विकल्प देव हैं, देवियां हैं और अपरिचारक हैं यह विकल्प कहीं संभव नही है। देवी नहीं है तथापि परिचारणा किस प्रकार संभव है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है (1) सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प में स्पर्शपरिचारणा है (2) ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में रूपपरिचारणा है (3) महाशुक्र-सहस्रार में शब्दपरिचारणा है। (4) प्रानत-प्राणत-पारण-अच्युत कल्प में मनःपरिचारणा है। कायपरिचारणा में मनुष्य की तरह देव देवी के साथ मैथुन सेवन करता है। देवों में शुक्र के पुद्गल यहाँ बताये हैं और वे शुक्रपुद्गल देवियों में जाकर पांच इन्द्रियों के रूप में परिणत होते हैं। उस शुक्र से गर्भाधान नहीं होता' 23 क्योंकि देवों में वैक्रिय शरीर है / यह शुक्र वैक्रियवर्गणाओं से निर्मित होता है। जहां पर स्पर्श प्रादि परिचारणा बताई गई है उन देवलोकों में देवियां नहीं होतीं, पर जब उन देवों की इच्छा होती है तब सहस्रार देबलोक तक देवियां विकुर्वणा करके वहाँ उपस्थित होती हैं और देव अनुक्रम से उनके स्पर्श, रूप, शब्द से संतुष्ट होते हैं / 224 टीकाकार ने यहाँ स्पष्टीकरण किया है--उन देवों में भी शुक्रविसर्जन होता है अर्थात् देव और देवियों में सम्पर्क नहीं होता तथापि शुक्र-संक्रमण होता है और उसके परिणमन से उनके रूप-लावण्य में वृद्धि होती है। 223. केवलं ते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -प्रज्ञापनावृत्ति पत्र 550 224. पुद्गलसंक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः। --प्रज्ञापनावृत्ति पत्र 551 [ 64 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org