________________ संज्ञा : एक चिन्तन इकतीसवें संजीपद में सिद्धों सहित सम्पूर्ण जीवों को संशी, असंज्ञी और नोसंजी-नोअसंज्ञी इन तीन भेदों में विभक्त करके विचार किया गया है। सिद्ध न तो संज्ञी हैं और न असंज्ञी, इसलिए उनको नोसंज्ञीनोप्रसंज्ञो कहा है। मनुष्य में भी जो केवली हैं ये भी सिद्ध समान हैं और इसी संज्ञा वाले हैं। क्योंकि मन होने पर भी वे उसके व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते / जीव संझी और असंज्ञी दोनों प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव असंज्ञी ही होते हैं। नारक, भवनपति, वाणव्यंतर और पंचेन्द्रिय तिथंच संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के हैं / ज्योतिष्क और वैमानिक सिर्फ संज्ञी हैं। यहाँ पर संज्ञा का क्या अर्थ लेना चाहिए? यह स्पष्ट नहीं है, क्योंकि मनुष्यों, नारकों, भवनपतियों और वाणव्यंतर देवों को असंज्ञी कहा है। इसलिए जिसके मन होता है वह संज्ञी है, यह अर्थ यहाँ पर घटित नहीं होता। अतएव प्राचार्य मलयगिरि ने संज्ञा शब्द के दो अर्थ किए हैं, तथापि पूरा समाधान नहीं हो पाता / नारक, भवनपति, बाणव्यंतर आदि को संज्ञी और असंज्ञो कहा है, वे जीव पूर्व भव में संजी और असंज्ञी थेइस धष्टि से उनको संज्ञी और असंज्ञी कहा है। 207 आगमप्रभाबक पुण्यविजय जी महाराज 208 का अभिमत है कि यहाँ पर संज्ञी-प्रसंज्ञो शब्द जो पाया है वह किस अर्थ का सही द्योतक है ? अन्वेषणीय है। संज्ञा शब्द का प्रयोग पागमसाहित्य में विभिन्न अर्थों को लेकर हमा है। प्राचारांग में संज्ञा शब्द पूर्वभव के जातिस्मरण ज्ञान के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। दशाश्रुतस्कन्ध१० में दत्तचित्त समाधि का उल्लेख है, वहाँ भी जातिस्मृति के अर्थ में ही 'सण्णिनाणं' शब्द का उपयोग हुआ है। स्थानांग" में प्रथम स्थान में एक संज्ञा का उल्लेख है तो चतुर्थ स्थान में आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, इन चार संज्ञानों का उल्लेख है 12 तो दसवें स्थान'१३ में दस संज्ञाओं का वर्णन है, उपर्युक्त चार संज्ञानों के अतिरिक्त क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और प्रोध इन संज्ञाओं का उल्लेख है। इस प्रकार संज्ञा के दो अर्थ हैं--प्रत्यभिज्ञान और अनुभूति / इन्ही में मतिज्ञान का एक नाम संज्ञा निदिष्ट है।४ तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध, इन्हें एकार्थक माना है / 2.5 मलयगिरि२१६ और अभयदेव' 17 दोनों ने संज्ञा का अर्थ व्यंजनावग्रह के पश्चात होने वाली एक 207. प्रज्ञापनासूत्र भाग 2, पुण्यविजय जी म. की प्रस्तावना पृष्ठ 142 208. प्रज्ञापना, प्रस्तावना, पृष्ठ 142 209. आचारांग 1-1 210. दशाश्रुतस्कन्ध, 5 वी दशा 211. स्थानांग, प्रथम स्थान, सूत्र 30 212. स्थानांग, चतुर्थ स्थान, सूत्र 356 213. स्थानांग, दसवां स्थान, सूत्र 105 214. ईहापोहवीमंसा, मग्गणा य गवेषणा। सण्णा सई मई पग्णा, सव्वं आभिणिवोहियं / / -नंदीसूत्र 54, गा..६ 215. मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम् / –तत्त्वार्थसूत्र 1/13 216. संज्ञानं संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थ / -नंदीवृत्ति, पत्र 187 217. संज्ञानं संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः / -स्थानांगवृत्ति, पत्र 19 [62] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org