________________ प्रज्ञापना पर वर्तमान में जो टीकाएं उपलब्ध हैं उनमें सर्वप्रथम प्राचार्य हरिभद्र की प्रदेशव्याख्या है / हरिभद्र जैन भागमों के प्राचीन टीकाकार हैं। उन्होंने प्रावश्यक, दशवकालिक, जीवाभिगम, नन्दी, अनुयोगद्वार, पिण्डनियुक्ति प्रति पर महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं / प्रज्ञापना की टीका में सर्वप्रथम जैनप्रवचन की महिमा गाई है। उसके पश्चात् मंगल का विश्लेषण किया है और साथ में यह भी सूचित किया है कि मंगल की विशेष व्याख्या मावश्यक टीका में की गई है। भव्य-प्रभव्य का विवेचन करते हुए प्राचार्य ने वादिमुख्य कृत अभव्यस्वभाव के सूचक श्लोक को भी उद्धत किया है।४० प्रज्ञापना पर दूसरी वृत्ति नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव की है। पर यह वृत्ति सम्पूर्ण प्रज्ञापना पर नहीं है केवल प्रज्ञापना के तीसरे पद-जीवों के अल्पबहत्व–पर है। प्राचार्य ने 133 गाथाओं के द्वारा इस पद पर प्रकाश डाला है। स्वयं प्राचार्य ने उसे 'संग्रह' की अभिधा प्रदान की है। यह व्याख्या धर्मरत्नसंग्रहणी और प्रज्ञापनोद्वार नाम से भी विश्रुत है। इस संग्रहणी पर कुलमण्डनगणी ने संवत् 1441 में एक अवणि का निर्माण किया है / प्रान्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी पर एक अवणि प्रकाशित हुई है। पर उस अवणि के रचयिता का नाम ज्ञात नहीं है / यह अवणि कुलमण्डनगणी विरचित अवणि से कुछ विस्तृत है। पुण्यविजय जी महाराज का यह अभिमत है कि कुलमण्डनकृत अवणि को ही अधिक स्पष्ट करने के लिये किसी विज्ञ ने इसकी रचना की है। प्रज्ञापना पर विस्तृत व्याख्या मलयगिरि की है। प्राचार्य मलयगिरि सुप्रसिद्ध टीकाकार रहे हैं। उनकी टीकानों में विषय की विशदता. भाषा की प्रांजलता. शैली की प्रौढता एक साथ देखी जाता है कि उन्होंने छब्बीस ग्रन्थों पर वत्तियाँ लिखी हैं, उनमें से बीस ग्रन्थ उपलब्ध हैं, छह ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। मलयगिरि ने स्वतन्त्र ग्रन्थ न लिखकर टीकाएँ ही लिखी हैं पर उनकी टीकानों में प्रकाण्ड पाण्डित्य मुखरित हुमा है / वे सर्वप्रथम मूल सूत्र के शब्दार्थ की व्याख्या करते हैं, अर्थ का स्पष्ट निर्देश करते हैं, उसके पश्चात् विस्तृत विवेचन करते हैं। विषय से सम्बन्धित प्रासंगिक विषयों को भी वे छते चले जाते हैं। विषय को प्रामाणिक बनाने के लिए प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण भी देते हैं। प्रज्ञापनावृत्ति उनकी महत्त्वपूर्ण वृत्ति है। यह वृत्ति प्राचार्य हरिभद्र की प्रदेशव्याख्या से चार गुणी अधिक विस्तृत है। प्रज्ञापना के गुरु गम्भीर रहस्यों को समझने के लिए यह वृत्ति अत्यन्त उपयोगी है / वृत्ति के प्रारम्भ में प्राचार्य ने मंगलसूचक चार श्लोक दिए हैं। प्रथम श्लोक में भगवान महावीर की स्तुति है। द्वितीय में जिनप्रवचन को नमस्कार किया गया है तो तृतीय श्लोक में गुरु को नमन किया गया है और चतुर्थ श्लोक में प्रज्ञापना पर वत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है / 4' 239. शगादिवध्यपट: सुरलोकसेतुरानन्दद्वन्दुभिरसस्कृतिवंचितानाम् / / संसारचारकपलायनफालघंटा, जैन वचस्तदिह को न भजेत विद्वान् // 1 // -प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या 240. सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् / तन्नाद्भतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः // 1 // -प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या 241. जयति नमदमरमुकूटप्रतिबिम्बच्छदमविहितबहुरूपः / उद्धर्तुमिव समस्तं विश्वं भवपडतो वीरः // 1 // जिनवचनामृतजलधि वन्दे यबिन्दुमात्रमादाय / अभवन्तनं सत्त्वा जन्म-जरा-व्याधिपारिहीनाः / / 2 / / प्रणमत गुरुपदपङ्कजमधरीकृतकामधेनुकल्पलतम् / यदुपास्तिबशानिरुपममश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः // 3 // जडमतिरपि गुरुचरणोपास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः / समयानुसारतोऽहं विदधे प्रज्ञापनाविवतिम // 4 // -प्रज्ञापना टीक [6 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org