Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रकार की मति किया है। प्राचार्य अभयदेव ने दूसरा अर्थ संज्ञा का अनुभूति भी किया है।1८संज्ञा के जो दस प्रकार स्थानांग में बताए हैं उनमें अनुभूति ही घटित होता है / 21 प्राचार्य उमास्वाति ने संज्ञी-असंज्ञी का समाधान करते हुए लिखा है कि संज्ञी वह है जो मन वाला है२३० और भाष्य में उसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि संज्ञी शब्द से वे ही जीव अभिप्रेत हैं जिनमें संप्रधारण संज्ञा होती है 22 / क्योंकि संप्रधारण संज्ञा वाले को ही मन होता है। प्राहार आदि संज्ञा के कारण जो संज्ञी कहलाते हैं, वे जीव यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। बत्तीसवें पद का नाम संयत है। इसमें संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत इस प्रकार संयम के चार भेदों को लेकर समस्त जीवों का विचार किया गया है / नारक, एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये असंयत होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयत और संयतासंयत होते हैं। मनुष्य में प्रथम के तीन प्रकार होते हैं और सिद्धों में संयत का चौथा प्रकार नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत है / संयम के आधार से जीवों के विचार करने की पद्धति महत्त्वपूर्ण है। प्रविचारणा : एक चिन्तन चौंतीसवें पद का नाम प्रविचारणा है / प्रस्तूत पद में 'पवियारण' (प्रविचारण) शब्द का जो प्रयोग हया है उसका मूल 'प्रविचार' शब्द में है। 232 पद के प्रारम्भ में जहाँ द्वारों का निरूपण है वहाँ 'परियारणा' और मूल में परियारणया' ऐसा पाठ है। क्रीडा, रति, इन्द्रियों के कामभोग और मैथुन के लिए संस्कृत में प्रविचार अथवा प्रविचारणा और प्राकृत में परियारणा अथवा पवियारणा शब्द का प्रयोग हुआ है। परिचारणा कब, किसको और किस प्रकार की सम्भव है, इस विषय की चर्चा प्रस्तुत पद में 24 दण्डकों के आधार से की गई है। नारकों के सम्बन्ध में कहा है कि वे उपपात क्षेत्र में आकर तुरन्त ही आहार के पुद्गल ग्रहण करना प्रारम्भ कर देते हैं। इससे उनके शरीर की निष्पत्ति होती है और पुद्गल अंगोपांग, इन्द्रियादि रूप से परिणत होने के पश्चात् वे परिचारण प्रारम्भ करते हैं अर्थात् शब्दादि सभी विषयों का उपभोग करना शुरु करते हैं। परिचारण के बाद विकुवंणा-अनेक प्रकार के रूप धारण करने की प्रक्रिया करते हैं। देवों में इस क्रम में यह अन्तर है कि उनकी विकूर्वणा करने के बाद परिचारणा होती है। एकेन्द्रिय जीवों में परिचारणा नारक की तरह है किन्तु उसमें विकुर्वणा नहीं है, सिर्फ वायुकाय में विकुर्वणा है। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में एकेन्द्रिय की तरह, पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य में नारक की तरह परिचारणा है। प्रस्तुत पद में जीवों के प्राहारग्रहण के दो भेद-आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित- बताकर भी चर्चा की गई। एकेन्द्रिय के अतिरिक्त सभी जीव आभोगनिवर्तित और अनाभोगनिर्वतित आहार लेते हैं परन्तु एकेन्द्रिय में सिर्फ अनाभोगनिर्बतित पाहार ही होता है। जीव अपनी इच्छा से उपयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। वह प्राभोगनिर्वतित है और इच्छा न होते हुए भी जो लोमाहार प्रादि के द्वारा सतत आहार का ग्रहण होता रहता है वह अनाभोगनिर्वतित है। 218. आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा। --स्थानांग वृत्ति, पत्र 47 219. स्थानांग 10/105 220. संज्ञिनः समनस्काः / -तत्त्वार्थसूत्र 2/25 221. ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा / -तत्त्वार्थभाष्य 2/25 222. (क) कायप्रविचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् -तत्त्वार्थभाष्य 4-8 (ख) प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् / -सर्वार्थ सिद्धि 4-7 163 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org