________________ से संश्लिष्ट होता है उसका नाम लेश्या है / कृष्ण प्रादि द्रव्य की सहायता से जो जीव का परिणाम होता है वह लेश्या है। योग परिणाम लेश्या है / उपयुक्त परिभाषानों के अनुसार लेश्या से जीव पार कम क पुद्ग 1 के अनुसार लेश्या से जीव और कर्म के पुद्गलों का सम्बन्ध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न होती है और कर्म का उदय होता है। प्रात्मा की शुद्धि और अशुद्धि के साथ लेश्या का सम्बन्ध है। पौद्गलिक लेश्या का मन की विचारधारा पर प्रभाव पड़ता है और मन की विचारधारा का लेश्या पर प्रभाव पड़ता है / जिस प्रकार की लेश्या होगी वैसी ही मानसिक परिणति होगी। कितने ही मूर्धन्य मनीषियों का यह मन्तव्य है कि कषाय की मंदता से अध्यवसाय में विशुद्धि होती है और मध्यवसाय की विशुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती है। जिस परिभाषा के अनुसार योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान तक भावलेश्या का सद्भाव है और जिस परिभाषा के अनुसार कषायोदय-अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या है। ये दोनों परिभाषाएँ अपेक्षाकृत होने से एक दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं। जहाँ योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ पर प्रकृति और प्रदेशबन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या के रूप में विवक्षित हैं और जहाँकषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ स्थिति, अनुभाग प्रादि चारों बन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या के रूप में विवक्षित हैं। प्रस्तुत पद में छ: उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौबीस दण्डकों के सम्बन्ध में आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, प्रायु आदि का वर्णन है। जिन नारक जीवों के शरीर की अवगाहना बड़ी है उनमें प्राहार प्रादि भी अधिक है। नारकों में उत्तरोत्तर अवगाहना बढ़ती है। प्रथम नरक की अपेक्षा द्वितीय में और द्वितीय से तृतीय में। पर देवों में इससे उल्टा क्रम है। वहाँ पर उत्तरोत्तर अवगाहना कम होती है और आहार की मात्रा भी। आहार की मात्रा अधिक होना दुःख का ही कारण है। दुःखी व्यक्ति अधिव खाता है, सुखी कम / सलेश्य जीवों की अपेक्षा नारक आदि चौबीस दण्डकों में सम-विषम पाहार मादि की चर्चा है। द्वितीय उद्देशक में लेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल, ये छः भेद बताकर नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी-कितनी लेश्याएँ होती हैं इसका विस्तार से निरूपण है / अपेक्षा रष्टि से लेश्या के अल्पबहत्व का भी चिन्तन इसमें किया गया है। साथ ही 24 दण्डक के जीवों को लेकर लेश्या की अपेक्षा से ऋद्धि के अल्प और बहुत्वं के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्यु काल की लेश्या सम्बन्धी चर्चा है। अमुक-अमुक लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान को विषय-मर्यादा पर भी प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन होने पर उसके वर्ण, रस, गंध, स्पर्श किस प्रकार परिवर्तित होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा है। लेश्यानों के विविध परिणाम, उनके प्रदेश, अवगाहना, क्षेत्र, और स्थान की -~-मूलाराधना 131911 167. उत्तराध्ययन बृहद्वत्ति पत्र 650 168. (क) लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जनस्स / अज्झवसाणविसोधी, मंदलेसायस्स णादव्वा / / (ख) अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः शुद्धिः सम्पद्यते बहिः / बाह्यो हि शुध्यते दोषः सर्वमन्तरदोषतः // 169. जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ / तत्तो दोण्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुद्दिळं // 489 // --मूलाराधना (अमितगति), 7 / 1967 -गो. जीवकाण्ड [ 52 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org