________________ उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प है और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करतो है वह निर्विकल्प है।'८८ ज्ञान दर्शन : एक चिन्तन ज्ञान और दर्शन की मान्यता जन-साहित्य में अत्यधिक प्राचीन है। ज्ञान को प्रावत करने वाले कर्म का नाम ज्ञानाबरण है और दर्शन को आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण है। इन कर्मों के क्षय अथवा क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं। प्रागम-साहित्य में यत्र-तत्र ज्ञान के लिए 'जाणइ' और दर्शन के लिए 'पासइ' शब्द व्यवहृत हुआ है। दिगम्बर आचार्यों का यह अभिमत रहा है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है / आचार्य वीरसेन षटखण्डागम की धवलाटीका में लिखते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान है और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है / 18 दर्शन और ज्ञान में यही अन्तर है कि दर्शन सामान्यविशेषात्मक आत्मा का उपयोग है-स्वरूप-दर्शन है, जबकि ज्ञान प्रात्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है। जिनका यह मन्तव्य है कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है, वे प्रस्तुत मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान के विषय से अनभिज्ञ हैं / सामान्य और विशेष ये दोनों पदार्थ के धर्म हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। केवल सामान्य और केवल विशेष का ग्रहण करने वाला ज्ञान अप्रमाण है / इसी तरह विशेष व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन मिथ्या है।९० प्रस्तुत मत का प्रतिपादन करते हुए द्रव्यसंग्रह की वत्ति में ब्रह्मदेव ने लिखा है-ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से चिन्तन करना चाहिये-तर्क दृष्टि से और सिद्धान्तष्टि से / दर्शन को सामान्यग्राही मानना तर्क दृष्टि से उचित है किन्तु सिद्धान्तदृष्टि से प्रात्मा का न है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान 16 व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में भिन्नता है पर नैश्चयिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है।०२ सामान्य और विशेष के आधार से ज्ञान और दर्शन का जो भेद किया गया है उसका निराकरण अन्य प्रकार से भी किया गया है। यह अन्य दार्शनिकों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग किया गया है किन्तु जो जैन तत्त्वज्ञान के ज्ञाता हैं उनके लिए प्रागमिक व्याख्यान ही ग्राह्य है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार प्रात्मा और इतर का भेद ही वस्तुतः सारपूर्ण है।०३ उल्लिखित विचारधारा को मानने वाले प्राचार्यों की संख्या अधिक नहीं है, अधिकांशत: दार्शनिक प्राचार्यों ने साकार और अनाकार के भेद को स्वीकार किया है। दर्शन को सामान्यग्राही मानने का तात्पर्य इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म प्रतिविम्बित होता है और ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म झलकता है। वस्तु में दोनों धर्म हैं पर उपयोग किसी एक धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण कर पाता है। उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद होता है किन्तु वस्तु में नहीं। 188. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य 119 189. षट्खण्डागम, धवला टीका 11114 190. षट्खण्डागम, धवला वृत्ति 1:114 191. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा 44 192. द्रव्यसंग्रहवत्ति गाथा 44 193. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा 44 [59] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org