________________ मन न हो। दूसरा प्रश्न यह है--नारक, भवनपति और वाणव्यन्तर को असंज्ञी क्यों कहा? इसका उत्तर यह है कि इन तीनों में असंज्ञो जीव उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से उन्हें असंज्ञी कहा है / उपयोग और पश्यत्ता उनतीसवे, तीसवें और तेतीसवें, इन तीन पदों में क्रमश: उपयोग, पश्यत्ता और अवधि की चर्चा है। प्रज्ञापनासूत्र में जीवों के बोध-व्यापार अथवा ज्ञान-व्यापार के सम्बन्ध में इन पदों में चर्चा-विचारणा की गई है, अतएब हमने यहाँ पर तीनों को एक साथ लिया है। जैन दृष्टि से आत्मा विज्ञाता है,१८३ उसमें न रूप है, न रस है, न गन्ध है। वह अरूपी है, लोकप्रमाण असंख्यप्रदेशी है, नित्य है, उपयोग उसका विशिष्ट गुण है।१८४संख्या की दृष्टि से वह अनन्त है। उपयोगयह प्रात्मा का लक्षण भी है और गुण भी, 85 उपयोग में अवधि का समावेश होने पर भी इसके लिए अलग पद देने का कारण यह है कि उस काल में अवधि का विशेष विचार हुआ था। प्रस्तुत पद में उपयोग के और पश्यत्ता के दो दो भेद किये हैं---साकारोपयोग (ज्ञान) और अनाकारोपयोग (दर्शन), साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता / प्राचार्य अभयदेव ने पश्यत्ता को उपयोग-विशेष ही कहा है। अधिक स्पष्टीकरण करते हुए यह भी बताया है कि जिस बोध में केवल कालिक अवबोध होता हो वह पश्यत्ता है परन्तु जिस बोध में वर्तमानकालिक बोध होता है वह उपयोग है। यही कारण है कि मतिज्ञान और मति-अज्ञान को साकारपश्यत्ता के भेदों में नहीं लिया है। क्योंकि मतिज्ञान और मति-अज्ञान का विषय वर्तमान काल में जो पदार्थ है वह बनता है। अनाकारपश्यत्ता में अचक्षुदर्शन क्यों नहीं लिया गया है ? इस प्रश्न का समाधान प्राचार्य ने इस प्रकार किया है कि पश्यत्ता प्रकृष्ट ईक्षण है और प्रेक्षण तो केवल चक्षुदर्शन में ही संभव है, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले दर्शन में नहीं। अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु का उपयोग स्वल्पकालीन होता है और जहाँ पर स्वल्पकालीन उपयोग होता है वहां बोधक्रिया में अत्यन्त शीघ्रता होती है / यही इस प्रकृष्टता का कारण है।'८६ प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि पश्यत्ता शब्द रूढि के कारण उपयोग शब्द की तरह साकार और अनाकार बोध का प्रतिपादन करने वाला है, तथापि यह समझना आवश्यक है कि जहाँ पर लम्बे समय तक उपयोग होता है वहीं पर तीनों काल का बोध सम्भव है। मतिज्ञान में दीर्घकाल का उपयोग नहीं है। इसलिए उसमें कालिक बोध नहीं होता, जिससे उसे पश्यत्ता में स्थान नहीं दिया गया है। 187 यही है उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर / उपयोग और पश्यत्ता इन दोनों की प्ररूपणा जीवों के चौबीस दण्डकों में निर्दिष्ट की गई है / वस्तुतः इनमें विशेष कोई अन्तर नहीं है। पश्यत्तापद में केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन का उपयोग युगपत् है या क्रमश: इस सम्बन्ध में भी चर्चा में करते हुए तर्क दिया है कि ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार / इसलिए एक ही समय में दोनों उपयोग कैसे हो सकते हैं ? साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प / जो 183. आचारांग 5 / 5 सूत्र 165 184. आचारांग 516 सूत्र 170-171 185. गुणनो उवयोगगुणे। -भगवती 2 / 10 / 118 186, भगवती सूत्र, अभयदेववृत्ति पृष्ठ 714 187. प्रज्ञापना, मलयगिरि वृत्ति पृष्ठ 730 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org