Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ का होना स्थितिबन्ध है। आत्मपरिणामों की तीव्रता और मंदता के कारण कर्मफल में तीव्रता या मंदता होना अनुभागबन्ध है और कर्मपुत्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होना प्रदेशबन्ध है। योग के कारण प्रकृति और प्रदेशबन्ध होता है और कषाय के कारण स्थिति और अनुभागबन्ध होता है। प्रस्तुत पदों में विभिन्न प्रकृतियों के आधार पर कर्म के मूल पाठ भेद कहे गए हैं। कर्म की आठों मूल प्रकृतियां नैरयिक प्रादि सभी जीवों में होती है / ज्ञानावरण आदि कर्मों के बन्ध का मूल कारण राग और द्वेष है। राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। कर्मों के बेदन-- अनुभव के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है-वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र कर्म तो चौबीसों दण्डकों के जीव बेदते ही हैं परन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों को कोई जीव वेदते भी हैं और नहीं भी वेदते। यहाँ पर बेदना के लिए 'अनुभाव' शब्द का प्रयोग किया गया है। माहार : एक चिन्तन प्रहाईसवें पद का नाम आहारपद है। इसमें जीवों को प्राहार संबंधी विचारणा दो उद्देशकों द्वारा की गई है। प्रथम उद्देशक में ग्यारह द्वारों से और दूसरे उद्देशक में तेरह द्वारों से आहार के सम्बन्ध में विचार किया गया है। चौबीस दण्डकों में जीवों का प्राहार सचित्त होता है, अचित्त होता है या मिश्र होता है ? इस तर देते हए कहा है कि क्रियशरीरधारी जीवों का आहार अचित्त ही होता है परन्तु औदारिकशरीरधारी जीव तीनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं। नारकादि चौबीस दण्डकों में सात द्वारों से अर्थात् नारक आदि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ? कितने समय के पश्चात वे माहारार्थी होते हैं ? आहार में वे क्या लेते हैं ? सभी दिशाओं में से आहार ग्रहण कर क्या सम्पूर्ण आहार को परिणत करते हैं ? जो आहार के पुद्गल वे लेते हैं, वे सर्वभाव से लेते हैं या अमुक भाग का ही आहार लेते हैं ? क्या ग्रहण किए हुए सभी पुद्गलों का पाहार करते हैं ? आहार में लिए हुए पुद्गलों का क्या होता है ? इन सात द्वारों से आहार सम्बन्धी विचारणा की गई है। जीव जो माहारार्थी आहार लेते हैं वह आभोगनिर्वतित-स्वयं की इच्छा होने पर आहार लेना और अनाभोगनिर्वतित-विना इच्छा के आहार लेना, इस तरह दो प्रकार का है। इच्छा होने पर आहार लेने में जीवों की भिन्न-भिन्न कालस्थिति है परन्तु विना इच्छा लिया जाने वाला आहार निरंतर लिया जाता है / वर्ण-रस आदि से सम्पन्न अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वाला और असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र में अवगाढ और प्रात्मप्रदेशों से स्पष्ट ऐसे पुदगल ही प्राहार के लिए उपयोगी होते हैं। प्रस्तुत पद के दूसरे उद्देशक में प्राहार, भव्य, संजी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, और पर्याप्ति इन तेरह द्वारों के माध्यम से जीवों के आहारक और अनाहारक विकल्पों की चर्चा की गई है। प्रथम उद्देशक में जो आहार के भेदों की चर्चा है, उसकी यहाँ पर कोई चर्चा नहीं है। आहारक और अनाहारक इन दो पदों के आधार से छह भंगों की रचना की है और किन-किन जीवों में कितने भंग (विकल्प) प्राप्त होते हैं, इस सम्बन्ध में चिंतन किया गया है। प्राचार्य मलयगिरि ने तीसरे संज्ञी द्वार में यह प्रश्न उत्पन्न किया है कि संज्ञी का अर्थ समनस्क है। जब जीव विग्रहगति करता है उस समय जीव अनाहारक होता है। विग्रहगति में मन नहीं होता। फिर उन्हें संजी कैसे कहा ? प्राचार्य ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है-जब जीव विग्रहगति करता है तब वह संशी जीव सम्बन्धी आयुकर्म का बेदन करता है, इस कारण उसे संज्ञी कहा है, भले ही उस समय उसके [57 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org