Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ किया : एक चिन्तन . बाईसा क्रियापद है / प्राचीन युग में सुकृत-दुष्कृत, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल कर्म के लिए क्रिया शब्द व्यवहृत होता था और क्रिया करने वालों के लिए क्रियावादी शब्द का प्रयोग किया जाता था। आगम व पाली-पिटकों में प्रस्तुत अर्थ में क्रिया का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है। प्रस्तुत पद में क्रिया-कर्म की विचारणा की गई है। कर्म अर्थात् वासना या संस्कार, जिनके कारण पुनर्जन्म होता है। जब हम आत्मा के जन्म-जन्मान्तर की कल्पना करते हैं तब उसके कारण-रूप कर्म की विचारणा अनिवार्य हो जाती है। महावीर और बुद्ध के समय क्रियावाद शब्द कर्म को मानने वालों के लिए प्रचलित था। इसलिए क्रियावाद और कर्मवाद दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गए थे। उसके बाद कालक्रम से क्रियावाद शब्द के स्थान पर कर्मवाद ही प्रचलित हो गया। इसका एक कारण यह भी है कर्म-विचार की सूक्ष्मता ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों-त्यों वह क्रिया-विचार से दूर भी होता गया। यह क्रियाविचार कर्मविचार की पूर्वभूमिका के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। प्रज्ञापना में क्रियापद, सूत्रकृताङ्ग में क्रियास्थान' और भगवती' में अनेक प्रसंगों पर क्रिया और क्रियावाद की चर्चा की गई है। इससे ज्ञात होता है उस समय क्रिया की चर्चा का कितना महत्त्व था। प्रस्तुत पद में विभिन्न दृष्टियों से क्रिया पर चिन्तन है। क्रिया का सामान्य अर्थ प्रवृत्ति है, पर यहाँ विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में क्रिया शब्द व्यवहृत हुआ है। क्योंकि विश्व में ऐसी कोई बस्तु नहीं जिसमें क्रियाकारित्व न हो। वस्तु वही है जिसमें अर्थ-क्रिया की क्षमता हो, जिसमें अर्थ-क्रिया की क्षमता नहीं वह अवस्तु है। इसलिए हर एक वस्तु में प्रवृत्ति तो है ही पर यहाँ विशेष प्रवृत्ति को लेकर ही क्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है। क्रिया के कायिकी, प्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातकी, ये पांच प्रकार बताए हैं। क्रिया के जो ये पांच विभाग किए गए हैं वे हिंसा और अहिंसा को लक्ष्य में रखकर किए गए हैं। इन पांचों क्रियाओं में अठारह पापस्थान-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान आदि समाविष्ट हो जाते हैं। तीसरे रूप में क्रिया के पांच प्रकार इस प्रकार बताए हैं-प्रारंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खानक्रिया तथा भिच्छादसणवत्तिया / ये पांच क्रियाएं भी अठारह पापस्थानों में समाविष्ट हो जाती हैं। यहां पर किसके द्वारा कौनसी क्रिया होती है, यह भी बताया है। उदाहरण के रूप में-प्राणातिपात से होने वाली क्रिया षट्जीवनिकाय के सम्बन्ध में होती है। नरक प्रादि चौबीस दण्डकों के जीव छह प्रकार का प्राणातिपात करते हैं। मृषावाद सभी द्रव्यों के सम्बन्ध में किया जाता है / जो द्रव्य ग्रहण किया जाता है उसके सम्बन्ध में अदत्तादान होता है / रूप और रूप वाले द्रव्यों के सम्बन्ध में मैथुन होता है। परिग्रह सर्व द्रव्यों के विषय में होता है। प्राणातिपात प्रादि क्रियाओं के द्वारा कर्म की कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, इस संबन्ध में भी चर्चा-विचारणा की गई है। स्थानांग'७६ में विस्तार के साथ क्रियाओं के भेद-प्रभेदों की चर्चाएं हैं। वहाँ जीवक्रिया, अजीवक्रिया और फिर उनके भेद, उपभेद-कुल बहत्तर कहे गए हैं। सूत्रकृताङ्ग'६० में तेरह क्रियास्थान बताए हैं तो 176. दीघनिकाय सामञ्जफलसुत्त 177. सूत्रकृताङ्ग 1 / 12 / 1 178. भगवती 30.1 179. स्थानाङ्ग, पहला स्थान, सूत्र 4 : द्वितीय स्थान, सूत्र 2-37 180, सूत्रकृताङ्ग 2 / 2 / 2 [5 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org