________________ उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद हैं। इसमें जीवों के चौवीस दण्डकों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के सम्बन्ध में विचार करते हुए बताया है कि सम्यग-मिथ्यारष्टि केवल पंचेन्द्रिय होता है और एकेन्द्रिय मिथ्याष्टि ही होता है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सम्यग मिथ्यादृष्टि नहीं होते। षटखण्डागम में असंज्ञी पंचेन्द्रिय को मिथ्यारष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यारष्टि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। सम्यक्त्व से तात्पर्य है—व्यवहार से जीवादि का श्रद्धान और निश्चय से प्रात्मा का श्रद्धान है।०२जीव-अजीव आदि नौ पदार्थ हैं। इस प्रकार उन परमार्थभूत पदार्थों के सदभाव का उपदेश से अथवा निसर्ग से होने वाले श्रद्धान को सम्यक्त्व जानना चाहिये / ' 73 अन्तक्रिया : एक चिन्तन बीसवें पद का नाम अन्तक्रिया है / मृत्यु होने पर जीव का स्थूल शरीर यहीं पर रह जाता है पर तैजस और कार्मण, जो सूक्ष्म शरीर हैं, उसके साथ रहते हैं। कार्मणशरीर के द्वारा हो फिर स्थूल शरीर निष्पन्न होता है / अत: स्थूल शरीर के एक बार छूट जाने के बाद भी सूक्ष्म शरीर रहने के कारण जन्म-मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। जब सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाते हैं तो भवपरम्परा का भी अन्त हो जाता है। अन्तक्रिया का अर्थ है जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करना / भव का अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया है। यह क्रिया दो अर्थों में व्यवहृत हुई है-नवीन भव अथवा मोक्ष, दूसरे शब्दों में यहाँ पर मोक्ष और मरण इन दोनों अर्थों में अन्तक्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है / स्थानांग में भरत, गजसुकुमाल, सनत्कुमार और माता मरुदेवी की जो अन्तक्रिया बताई गई है, वह जन्म-मरण का अन्त कर मोक्ष प्राप्त करने की क्रिया है। वे प्रात्मा एवं शरीर प्रादि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय बन गए।'७४ प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया का विचार जीवों के नरक आदि चौवीस दण्डकों में किया गया है। यह भी बताया है कि सिर्फ मानव ही अन्तक्रिया यानी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसका वर्णन दस द्वारों के द्वारा किया गया है। इक्कीसवा 'अवगाहनासंस्थानपद है। इस पद में जीवों के शरीर के भेद, संस्थान-प्राकृति, प्रमाणशरीर का माप, शरीरनिर्माण के लिए पुद्गलों का चयन, जीव में एक साथ कौनसे शरीर होते हैं? शरीरों के द्रव्यों और प्रदेशों का अल्प-बहुत्व और अवगाहना का अल्प-बहुत्व इन सात द्वारों से शरीर के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। गति आदि अनेक द्वारों से पूर्व में जीवों की विचारणा हई है पर उनमें शरीरद्वार नहीं है / यहाँ पर प्रथम विधिद्वार में शरीर के पांच भेदों-प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण का वर्णन करने के पश्चात प्रौदारिक आदि शरीरों के भेदों की चर्चा है। प्रौदारिकशरीरधारी एकेन्द्रिय प्रादि में कौनसा संस्थान है, उनकी अवगाहना कितनी है ? एक जीव में एक साथ कितने-कितने शरीर सम्भव हैं ? शरीर के द्रव्य-प्रदेशों का अल्पबहुत्व, शरीर की अवगाहना का अल्पबहुत्व आदि के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। 172. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं / ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं // -दर्शनप्राभृत, 20 173. जीवाऽजीवा य बंधो य, पुन्न-पावाऽऽसवो तहा। संवरो गिज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव / / तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं / भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं // --उत्तराध्ययन 2014-15 174. स्थानांग, स्थान 411 [54] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org