________________ अपेक्षा से अल्पबहुत्व द्रव्य और प्रदेश को लेकर किया गया है। पांचवें उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में देव-नारक की अपेक्षा से परिणमन नहीं होता, यह बताया है / छठे उद्देशक में विविध क्षेत्रों में रहे हुए मनुष्य पौर मनुष्यनी की अपेक्षा से चिन्तन किया गया है। यह स्मरण रखना होगा कि जो लेश्या माता-पिता में होती है वही लेश्या पुत्र और पुत्री में भी हो, यह नियम नहीं है। जीव को लेश्या की प्राप्ति के पश्चात अन्तम हर्त व्यतीत हो जाने पर तथा अन्तर्महर्त शेष रह जाने पर जीव परलोक में जन्म ग्रहण करता है, क्योंकि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में उसी लेण्या का अन्तर्महर्त काल तक होना आवश्यक है। जीव जिस लेश्या में मरता है, अगले भव में उसी लेश्या में जन्म लेता है / 70 उत्तराध्ययन में किस किस लेश्या वाले जीव के किस किस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं तथा भगवती में लेश्यामों के द्रव्य और भाव ये भेद किए गए हैं / पर प्रज्ञापना का लेश्यापद बहुत ही विस्तृत होने पर भी उसमें उसकी परिभाषा एवं द्रव्य और भाव प्रादि बातों की कमी है। इस कमी के सम्बन्ध में पागमप्रभावक. पुण्यविजयजी महाराज का यह मानना है कि यह इस पागम की प्राचीनता का प्रतीक है। कायस्थिति : एक विवेचन अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है। इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं, इस पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ स्थितिपद और इस पद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो 24 दण्डकों में जीवों की भवस्थिति अर्थात् एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है जबकि इस पद में एक जीव मरकर सतत उसी पर्याय में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की काल-मर्यादा अथवा उन सभी भवों में प्रायुष्य का कुल जाड़ कितना होगा? स्थितिपद में तो केवल एक भव की आयु का ही विचार है जब कि प्रस्तुत पद में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य, जो काय के रूप में जाने जाते हैं, उनका उस रूप में रहने के काल का अर्थात् स्थिति का भी विचार किया गया है। इसमें जीव, मति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, प्राहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (सिद्धि), अस्ति (काय), चरिम की अपेक्षा से कायस्थिति का वर्णन है। वनस्पति की कायस्थिति 'असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा' बताई है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी वनस्पति का जीव अनादि काल से वनस्पतिरूप में नहीं रह सकता / उस जीव ने वनस्पति के अतिरिक्त अन्य भव किये होने चाहिये। इससे यह स्पष्ट है प्रज्ञापना के रचयिता प्राचार्य श्याम के समय तक व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि को कल्पना पैदा नहीं हुई थी / व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि की कल्पना दार्शनिक युग की देन है। यही कारण है कि प्रज्ञापना की टीका में व्यवहारराशि और अव्यवहारराशि, ये दो भेद वनस्पति के किए गये हैं और निगोद के जीवों के स्वरूप का वर्णन है। माता मरुदेवी का जीव अनादि काल से वनस्पति में था; इसका उल्लेख टीका में किया गया है।" इस पद में अनेक ज्ञातव्य विषयों पर चर्चा की गई है। टीकाकार मलयगिरि ने मूल सूत्र में प्राई हुई अनेक बातों का स्पष्टीकरण टीका में किया है। 170. जल्लेसाई दम्बाई आयइत्ता काल करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ / 171. प्रज्ञापना टीका पत्र 379 / 385 [ 53 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org