________________ 1. सत्यमनःप्रयोग 2. असत्यामनःप्रयोग 3. सत्यमृषामनःप्रयोग 4. असत्यांमृषामनःप्रयोग 5. सत्यवचनप्रयोग 7. सत्यमषावचनप्रयोग. असत्यामषावचनप्रयोग 9. प्रौदारिककायप्रयोग 10. प्रौदारिकमिश्रकायप्रयोग 11. वैक्रियकायप्रयोग 12. वैक्रियमिश्रकायप्रयोग 13. पाहारककायप्रयोग 14. प्राहारकमिश्रकायप्रयोग 15. कार्मणकायप्रयोग / प्रजापना की टीका में प्राचार्य मलयगिरि ने इन पन्द्रह प्रयोग के भेदों में तैजसकाययोग का निर्देशन होने से कार्मण के साथ तेजस को मिलाकर तैजसकार्मणशरीरप्रयोग की चर्चा की है। '55 इन पन्द्रह प्रयोगों की जीव में और विशेष रूप से चौवीस दण्डकों में योजना बताई है। प्रयोग के विवेचन के पश्चात् इस पद में गतिप्रपात का भी निरूपण है। उसके पांच प्रकार बताये हैं--प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति / इनके भी अवान्तर अनेक भेद-प्रभेद हैं। लेश्या : एक विश्लेषण सत्रहवाँ लेश्यापद है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभायित करने वाले पुदगलों के अनेक समूह हैं। उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययन बृहदवृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक प्राभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया है।'५६ दिगम्बरपरम्परा के प्राचार्य शिवार्य ने लेश्या उसे कहा है जो जीव का परिणाम छायापुद्गलों से प्रभावित होता हो।'५७ प्राचीन जैन वाङमय में शरीर के वर्ण, प्राणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों प्रथों में लेश्या शब्द व्यबहत हमा है। शरीर के वर्ण और प्राणविक आभा द्रव्यलेश्या है तो विचार भावलेश्या हैं। 58 विभिन्न ग्रन्थों में लेश्या की विभिन्न परिभाषाएं प्राप्त होती हैं। प्राचीन पंचसंग्रह, 10 धवला,' गोम्मटसार आदि में लिखा है कि जीव जिसके द्वारा अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करता है वह लेश्या है। तत्त्वार्थवार्तिक, 113 पंचास्तिकाय 54 आदि ग्रन्थों के अनुसार कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति लेश्या है। स्थानांग-अभयदेववृत्ति, '65 ध्यानशतक, 6 प्रभृति ग्रन्थों में लिखा है-जिसके द्वारा प्राणी कर्म 155. प्रज्ञापनाटीका पत्र 319 --प्राचार्य मलयगिरि 156. लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या--प्रतीव वाराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया।। -बृहद्वृत्ति, पत्र 650 157. जह बाहिरलेस्सायो, किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स / अन्भन्तरलेस्सायो, तह किण्हादीय पुरिसस्स / / -मूलाराधना, 711907 158. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, माथा 494 (ख) उत्तराध्ययननियूक्ति, गाथा 539 159. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 540 160. प्राचीन पंचसंग्रह 1-142 161. धवला, पु. 1, पृ. 150 162. गोम्मटसार, जीवकाण्ड 489 163. तत्त्वार्थवार्तिक 2, 6, 8 164, पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य वृत्ति 140 165. लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या / -स्थानांग अभयदेववृत्ति 51, पृष्ठ 31. 166. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते // -~-ध्यानशतक हरिभद्रीयावृत्ति 14 [ 51] Jain Education International For Private & Personal Use Only 'www.jainelibrary.org