________________ इन्द्रियों की विशेष प्राकृतियाँ नि त्ति-द्रव्येन्द्रिय हैं। निर्वत्ति-द्रव्येन्द्रिय की बाह्य और प्राभ्यन्तरिक पौद्गलिक शक्ति है, जिसके अभाव में प्राकृति के होने पर भी ज्ञान होना संभव नहीं है; वह उपकरण द्रव्येन्द्रिय है / भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार की है।४७ ज्ञानावरणकर्म आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली जो पात्मिक शक्तिविशेष है, वह लब्धि है। लब्धि प्राप्त होने पर प्रात्मा एक विशेष प्रकार का व्यापार करती है, वह व्यापार उपयोग है। प्रथम उद्देशक में चौबीस द्वार हैं और दूसरे में बारह द्वार हैं। इन्द्रियों की चर्चा चौबीस दण्डकों में की गई है। जीवों में इन्द्रियों के द्वारा अवग्रहण-परिच्छेद अवाय ईहा और अवग्रह -अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार से चौबीस दण्डकों में निरूपण किया गाया है। चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है / अर्थावग्रह छः प्रकार का है। वह पांच इन्द्रिय और छठे नोइन्द्रिय मन से भी होता है / इस प्रकार इन्द्रियों के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय दो भेद किए हैं। द्रव्येन्द्रिय पुद्गलजन्य होने से जड़ रूप है और भावेन्द्रिय ज्ञान रूप है / इसलिए वह चेतना शक्ति का पर्याय है। द्रव्येन्द्रिय अंगोपांग और निर्माण नामकर्म के उदय से प्राप्त है। इन्द्रियों के आकार का नाम निर्वत्ति है। वह निर्वत्ति भी बाह्य और प्राभ्यन्तर रूप से दो प्रकार की है / इन्द्रिय के बाह्य आकार को बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं और आभ्यन्तर प्राकृति को प्राभ्यन्तरनित्ति कहते हैं / बाह्य भाग तलवार के सदृश है और प्राभ्यन्तर भाग तलवार की तेज धार के सदृश है जो बहुत ही स्वच्छ परमाणुओं से निर्मित है / प्रज्ञापना की टीका में प्राभ्यन्तर निवृत्ति का स्वरूप पुद्गलमय बताया है '48 तो आचारांग-वृत्ति में उसका स्वरूप चेतनामय बताया है / 146 यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि त्वचा की प्राकृति विभिन्न प्रकार की होती है किन्तु उसके बाह्य और प्राभ्यन्तर आकार में पृथकता नहीं है। प्राणी की त्वचा का जिस प्रकार बाह्य आकार होता है वैसा ही प्राभ्यन्तर आकार भी होता है, पर अन्य चार इन्द्रियों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। उन इन्द्रियों का बाह्य आकार अलग है और प्राभ्यन्तर आकार अलग है / उदाहरण के रूप में देखिए-कान का आभ्यन्तर आकार कदम्बपुष्प के सदृश होता है। आंख की प्राभ्यन्तर आकृति मसूर के दाने के सदृश होती है और नाक की आभ्यन्तर आकृति प्रतिमुक्तक के फूल के सदृश होती है तथा जीभ की आकृति छुरे के समान होती है / पर बाह्याकार सभी में पृथक्पृथक् दृग्गोचर होते हैं / जैसे मनुष्य, हाथी, घोड़े, पक्षी आदि के कान, आंख, नाक, जीभ आदि को देख सकते हैं। आभ्यन्तरनित्ति की विषयग्रहणशक्ति उपकरणेन्द्रिय है। तत्त्वार्थसूत्र, 50 विशेषावश्यकभाष्य,'५१ लोकप्रकाश ५२प्रभूति ग्रन्थों में इन्द्रियों पर विशेष रूप से विचार किया गया है / प्रज्ञापना में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तन, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियोपयोग आदि द्वारों से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की चौबीस दण्डकों में विचारणा को गई है। 147. लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् / --तस्वार्थसूत्र 2/18 148 प्रज्ञापनासूत्र, इन्द्रियपद, टीका पृष्ठ 294/1 149. प्राचारांगवृत्ति, पृष्ठ 104 150. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 2, सूत्र 17/18 तथा विभिन्न वृत्तियाँ 151. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2993-3003 152. लोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 464 से आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org