Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ के सिद्धान्त को उन्होंने मान्य नहीं किया। बौद्धों ने क्षणिकवाद स्वीकार किया है। क्षणिकवाद स्वीकार करने पर भी उन्होंने पुनर्जन्म को स्वीकार किया है / उन्होंने सन्तति-नित्यता के रूप में नित्यता का तृतीय प्रकार स्वीकार किया है। . प्रज्ञापना के प्रस्तुत पद में जैनदृष्टि से जीव और अजीव दोनों के परिणाम प्रतिपादित किए हैं। जिससे स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन मान्य पुरुषकटस्थवाद जैनों को अमान्य है। पहले जीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों को प्रतिपादित कर नरक आदि चतुर्विशति दण्डकों में परिणामों का विचार किया गया है। उसके पश्चात् अजीव के परिणामों की परिगणना की गई है। यहाँ पर यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि अजीव में केवल पुद्गल के परिणामों की ही चर्चा की गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव द्रव्यों के परिणामों की चर्चा नहीं है। आगमप्रभावक पुण्यविजयजी महाराज व पंडित दलसुख मालवशिया आदि ने प्रज्ञापना की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा की है, वह चर्चा ज्ञानवर्द्धक है, अतः हम यहाँ पर उस चर्चा की पुनरावृत्ति न कर विशेष जिज्ञासमों को उसके पढ़ने का सूचन करते हैं। यहाँ पर परिणाम का अर्थ पर्याय अथवा भावों का परिणमन है। कषाय : एक चिन्तन चौदहवें पद का नाम कषाय पद है। कषाय जनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जो जाव के शुद्धोपयोग में मलीनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है।३८ कप का अर्थ है कुरेदना, खोदना और कृषि करना। जिससे कर्मों की कृषि लहलहाती हो वह कषाय है। कषाय के पकते ही सुख और दुःख रूपी फल निकल पाते हैं। कषाय शब्द कषले रस का भी द्योतक है। जिस प्रकार कषाय रसप्रधान वस्तु के सेवन से अन्नरुचि न्यून होती है वैसे ही कषायप्रधान जीवों में मोक्षाभिलाषा क्रमशः कम हो जाती है। कषाय वह है जिससे समता, शान्ति और सन्तुलन नष्ट हो जाता है। 36 कषाय एक प्रकार से प्रकम्पन है, उत्ताप है और पावर्त्त है, जो चंतन्योपयोग में विक्षोम उत्पन्न करता रहता है। क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों को एक शब्द में कहा जाय तो वह कषाय है। कषाय मन की मादकता है। कषाय को तुलना आवर्त से की गई है पर क्रोध के प्रावर्त से मान का पावर्त भिन्न है और मान के प्रावर्त से माया का आवर्त भिन्न है। क्रोध का आवर्त खरावर्त है / खरावर्त सागर में होने वाले तीक्ष्ण यावर्त के सदृश है। मान का आवर्त उन्नतावर्त है। इस प्रावर्त से उत्प्रेरित मनोदशा पहाड़ की चोटी को अपने बहाव में उड़ा ले जाने वाली तेज पवन के सदृश है। अभिमानी दूसरों को मिटाकर अपने-आपके अस्तित्व का अनुभव करता है। माया गूढावर्त के सदृश है। मायावी का मन घुमावदार होता है। इसके विचार गूढ होते हैं, वह विचारों को छुपाए रखता है। लोभ अभिषावावर्त है, लोभी का मानस किसी एक केन्द्र को मानकर उसके चारों ओर घूमता है, जैसे चील आदि पक्षो मांस के चारों ओर घूमते हैं, जब तक वह पदार्थ उसे प्राप्त नहीं होता तब तक उसके मन में शान्ति नहीं होती। इस प्रकार कषाय चक्राकार है जो चेतना को घुमाती रहती है। प्रस्तुत पद में क्रोध-मान-माया-लोभ ये चारों कषाय चौबीस दण्डकों में बताये गये हैं। क्षेत्र, वस्तु, र और उपधि को लेकर सम्पूर्ण सांसारिक जीवों में कषाय उत्पन्न होता है। कितनी बार जीव को कषाय का निमित्त मिलता है और कितनी बार बिना निमित्त के भी कषाय उत्पन्न हो जाता है। 138. प्रज्ञापना पद 14 टीका 139. अनरुचिस्तम्भनकृत् कषायः / -स्थानांग टीका [ 47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org