Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है और साथ ही कभी-कभी प्रतिपल प्रतिक्षण भाषाद्रव्य का त्याग करता है / प्रथम समय में ग्रहण किए हए भाषा द्रव्यों को द्वितीय समय में त्याग करता है और द्वितीय समय में ग्रहण किए हए द्रव्यों को तृतीय समय में त्याग करता है / औदारिक, वैक्रियक और पाहारक शरीर वाला जीव ही भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है। कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि ब्रह्म शब्दात्मक है। समस्त विराट् विश्व शब्दात्मक है, शब्द के अतिरिक्त घट-पट आदि बाह्य पदार्थों एवं ज्ञान प्रभृति प्रान्तरिक पदार्थों की सत्ता का अभाव है। शब्द ही विभिन्न वस्तुओं के रूप में प्रतिभासित होता है। पर यह चिंतन प्रमाण से बाधित है। हम पूर्व पृष्ठों में शब्द की पौद्गलिकता का समर्थन कर चुके हैं / आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के माध्यम से भी यह सत्य-तथ्य उजागर हो चुका है / यन्त्र स्वयं पुद्गल रूप है, इसीलिए वह पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है। पौद्गलिक वस्तु ही पौद्गलिक वस्तु को पकड़ सकती है। भाषा के पुद्गल जब भाषा के रूप में बाहर निकलते हैं तब सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। लोक का प्राकार वज्राकार है इसलिए भाषा का आकार भी वज्राकार बतलाया गया है। लोक के आगे भाषा के पुद्गल नहीं जाते, क्योंकि गमन क्रिया में सहायभूय धर्मास्तिकाय लोक में ही है। पुद्गल परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध रूप होते हैं। जो स्कन्ध अनन्तप्रदेशी हैं उन्हीं का ग्रहण भाषा के लिए उपयोगी होता है। क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात प्रदेशों में स्थित स्कन्ध, काल की दृष्टि से एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति बाले होते हैं / रूप-रस-गंध और स्पर्श की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समान नहीं होते परन्तु सभी रूपादि परिणाम वाले तो होते ही हैं। स्पर्श की दृष्टि से चार स्पर्श वाले पुद्गलों का ही ग्रहण किया जाता है। प्रात्मा आकाश के जितने प्रदेशों का अवगाहन कर रहता है, उतने ही प्रदेशों में रहे हुए भाषा के पुद्गलों को वह ग्रहण करता है। प्रस्तुत पद में भाषा के भेदों का अनेक दृष्टियों से वर्णन किया गया है। भाषा के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद हैं। पर्याप्त के सत्यभाषा और मृषाभाषा दो भेद हैं तथा सत्यभाषा के जनपदसत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य, प्रौपम्यसत्य, ये दस भेद हैं। असत्य भाषा बोलने के अनेक कारण हैं। असत्यभाषा के दस भेद हैं-क्रोधनिःसृत, माननिःसृत, मायानिःसृत, लोभनिःसृत, प्रेमनिःसृत, द्वेषनिःसृत, हास्यनिःसृत, भयनिःसृत, प्राख्यानिकानिःसृत, उपघातनिःसृत / अपर्याप्तक भाषा के सत्यामपा और असत्यामुषा ये दो प्रकार हैं। उनमें सत्यामषा के दस और असत्यामृषा के बारह भेद बताये गये हैं। सत्यामृषा भाषा वह है जो प्रर्द्ध सत्य हो और असत्यामृषा वह है जिसमें सत्य और मिथ्या का व्यवहार नहीं होता। अन्य दृष्टि से लिंग, संख्या, काल, वचन आदि की दृष्टि से भाषा के सोलह प्रकार बताये हैं। शरीर : एक चिन्तन बारहवें पद में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। शरीर के औदारिक, वैक्रिय, प्राहारक, तेजस और कार्माण ये पांच भेद हैं। 3. उपनिषदों में आत्मा के पांच कोषों की चर्चा है। वे हैं-- 132. भगवतीसूत्र 1711 सूत्र 592 [45 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org