________________ चारों ही कषायों के तरतमता की दृष्टि से अनन्त स्तर होते हैं, तथापि प्रात्मविकास के घात की दृष्टि से उनमें से प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं--अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन / अनन्तानुबंधी कषाय के उदयकाल में सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती और संज्वलन कषाय के उदयकाल में वीतरागता उत्पन्न नहीं होती। ये चारों प्रकार के कषाय उत्तरोत्तर, मंदमंदतर होते हैं, साथ ही प्राभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वतित, उपशान्त और अनुपशान्त, इस प्रकार के भेद भी किए गए हैं। प्राभोगनिवर्तित कषाय कारण उपस्थित होने पर होता है तथा जो बिना कारण होता है वह अनाभोगनिर्वतित कहलाता है। कर्मबंधन का कारण मुख्य रूप से कषाय है। तीनों कालों में पाठों कर्मप्रकृतियों के चयन के स्थान और प्रकार, 24 दंडक के जीवों में कषाय को ही माना गया है। साथ ही उपचय, बंध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा में चारों कषाय ही मुख्य रूप से कारण बताये गये हैं। इन्द्रिय : एक चिन्तन पन्द्रहवें पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में दो उद्देशकों में चिंतन किया गया है। प्राणी और अप्राणी में भेदरेखा खींचने वाला चिह्न इन्द्रिय है। प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में इन्द्रिय शब्द की परिभाषा करते हुए लिखा है-परम् ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले प्रात्मा को इन्द्र कहते हैं और उस इन्द्र के लिंग या चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं / अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में निमित्त होता है वह इन्द्रिय है अथवा जो इन्द्रियातीत प्रात्मा के सद्भाव की सिद्धि का हेतु है वह इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र अर्थात नामकर्म के द्वारा निर्मित स्पर्शन आदि को इन्द्रिय कहा है।१४० तत्त्वार्थभाष्य,'' तत्त्वार्थवार्तिक,'४२ आवश्यकनियुक्ति१४३ आदि अनेक ग्रन्थों में इससे मिलती-जुलती परिभाषाएँ हैं / तात्पर्य यह है कि प्रात्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का प्रावरण होने के कारण सीधा प्रात्मा से ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और वह माध्यम इन्द्रिय है / अतएव जिसकी सहायता से ज्ञान लाभ हो सके वह इन्द्रिय है। इन्द्रियां पांच हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चश्रु और श्रोत्र। इनके विषय भी पांच हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द / इसीलिए इन्द्रिय को प्रतिनियतअर्थग्राही कहा जाता है।४४ प्रत्येक इन्द्रिय, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय रूप से दो-दो प्रकार की है।' 45 पुद्गल की आकृतिविशेष द्रव्येन्द्रिय है और पास्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के निवृत्ति और उपकरण ये दो भेद हैं।' 140. इन्दतीती इन्द्र आत्मा, तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य तदर्थोपलब्धि निमित्त लिङ्ग तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते / अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम् / प्रात्मनः सूक्ष्मस्या स्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम् / अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते, तेन सृष्टमिन्द्रियमिति ।--सर्वार्थसिद्धि 1-14 141. तत्त्वार्थभाष्य 2-15 142. तत्त्वार्थवार्तिक 2 / 151-2 143. आवश्यकनियुक्ति, हरिभद्रीया वृत्ति 918, पृष्ठ 398 144. प्रमाणमीमांसा 112 / 21-23 145. सर्वार्थसिद्धि 2/16/179 146. निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् / -तत्त्वार्थसूत्र 2/17 [48 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org