________________ 1. अन्नमयकोष (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है) 2. प्राणमयकोष (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व) 3. मनोमयकोष (मन की संकल्प-विकल्पास्मक क्रिया) 4. विज्ञानमयकोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया) 5. प्रानन्दमयकोष (शानन्द की स्थिति) 1933 इन पांच कोषों में केवल अन्नमयकोष के साथ प्रौदारिक शरीर की तुलना की जा सकती है। 34 औदारिक आदि शरीर स्थूल हैं तो कार्मणशरीर सूक्ष्म शरीर है। कार्मणशरीर के कारण ही स्थल शरीर की उत्पत्ति होती है। नैयायिकों ने कार्मणशरीर को अव्यक्त शरीर भी कहा है। 35 सांख्य प्रभृति दर्शनों में अध्यक्त सूक्ष्म और लिंग शरीर जिन्हें माना गया है उनकी तुलना कार्मणशरीर के साथ की जा स चौबीस दंडकों में कितने कितने शरीर हैं, इस पर चिंतन कर यह बताया गया कि औदारिक से बैंक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं / संक्षेप में औदारिक' शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रसादि धातुमय शरीर है। यह शरीर मनुष्य और तिर्यञ्चों में ही होता है / वैक्रिय शरीर वह है जो विविध रूप करने में समर्थ हो, यह शरीर नैरयिकों तथा देवों का होता है। बक्रियलब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकाय में भी होता है / याहारक शरीर वह है जो माहारक नामक लब्धिविशेष से निष्पन्न हो / तेजस शरीर वह है जिससे तेजोलब्धि प्राप्त हो, जिससे उपघात या अनुग्रह किया जा सके, जिससे दीप्ति और पाचन हो। कार्मण शरीर वह है जो कर्मसमूह से निष्पन्न है, दूसरे शब्दों में कर्मविकार को कार्मण शरीर कह सकते हैं। तेजस और कार्मण शरीर सभी सांसारिक जीवों में होता है। भावपरिणमन : एक चिन्तन तेरहवें परिणाम पद में परिणाम के संबंध में चितन है। भारतीय दर्शनों में सांख्य प्रादि कुछ दर्शन परिणामवादी हैं तो न्याय प्रादि कुछ दर्शन परिणामवाद को स्वीकार नहीं करते। जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी का अभेद स्वीकार किया है वे परिणामवादी हैं और जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद माना है, वे अपरिणाभवादी हैं / नित्यता के सम्बन्ध में भारतीय दर्शनों में तीन प्रकार के विचार हैं-सांख्य, जैन और वेदान्तियों में रामानुज / इन तीनों ने परिणामी-नित्यता स्वीकार की है। पर यहाँ स्मरण रखना होगा कि सांख्यदर्शन ने प्रकृति में परिणामीनित्यता मानी है, किन्तु पुरुष में कूटस्थनित्यता स्वीकार की है। नैयायिकों ने सभी प्रकार की नित्य वस्तयों में कटस्थनित्यता मानी है। धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद स्वीकार करने के कारण परिणामीनित्यता 133. (क) पंचदशी 3. 111 (ख) हिन्दुधर्मकोश-डॉ. राजबलि पाण्डेय 134. तैत्तिरीय-उपनिषद्, भृगुवल्ली, बेलवलकर और रानाडे, -History of Indian Philosophy, 250. 135. वें शरीरस्य प्रकृती व्यक्ता च अव्यक्ता च / तत्र अव्यक्तायाः कर्मसमाख्यातायाः प्रकृतेरुपभोगात प्रक्षयः / प्रक्षीणे च कर्मणि विद्यमानानि भूतानि न शरीरमुत्पादयन्ति इति उपपन्नोऽपवर्गः। न्यायवार्तिक 312168 136. सांख्यकारिका ३९-४०,बेलवलकर और रानाडे -History of Indian Philosophy. 358, 430 & 370 137. द्वयी चेयं नित्यता कटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च। तत्र कटस्थनित्यता पुरुषस्य / परिणामिनित्यता गुणानाम् / -पातञ्जलभाष्य 4, 33 [ 46 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org