________________ प्रयोग : एक चिन्तन सोलहवाँ प्रयोगपद है। मन, वचन, काया के द्वारा प्रात्मा के व्यापार को योग कहा गया है तथा उसी योग का वर्णन प्रस्तुत पद में प्रयोग शब्द से किया गया है, यह आत्मव्यापार इसलिए कहा जाता है कि आत्मा के प्रभाव में तीनों की क्रिया नहीं हो सकती। प्राचार्य अकलंकदेव ने तीनों योगों के बाह्य और ग्राभ्यन्तर कारण बताकर उसकी व्याख्या की है। संक्षेप में वह इस प्रकार है-बाह्य और ग्राभ्यन्तर कारणों से मनन के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेशपरिस्पन्दन है वह मनोयोग कहलाता है। मनोवर्गणा का पालम्बन बाह्य कारण है। वीर्यान्तरायकर्म का क्षय, क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरणकर्म का क्षय-क्षयोपशम इसका प्राभ्यन्तर कारण है। बाह्य और पाभ्यन्तर कारण-जन्य भाषाभिमुख प्रात्मा का प्रदेशपरिस्पन्द बचनयोग है। वचनवर्गणा का पालम्बन बाह्य कारण है और वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतज्ञानावरण प्रादि कर्म का क्षयोपशम प्राभ्यन्तर कारण है। बाह्य और प्राभ्यन्तर कारण से उत्पन्न गमन आदि विषयक आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्दन काययोग है। किसी भी प्रकार का शरीरवर्गणा का पालम्बन इसका बाह्य कारण है। वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम इसका प्राभ्यन्तर कारण है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वीर्यान्तरायकर्म का क्षय, जो प्राभ्यन्तर कारण है वह दोनों ही गुणस्थानों में समान है किन्तु वर्गणा का पालम्बनरूप बाह्य कारण समान नहीं होने से तेरहवें गुणस्थान में योगविधि होती है किन्तु चौदहवें में नहीं / '53 यहाँ एक प्रश्न यह भी उद्बुद्ध होता है कि मनोयोग और वचनयोग में किसी न किसी प्रकार का काययोग का आलम्बन होता ही है। इसलिए केवल एक काययोग को मानना पर्याप्त है। उत्तर में निवेदन है-मनोयोग और वचनयोग में काययोग की प्रधानता है। जब काययोग मनन करने में सहायक बनाता है, तब मनोयोग है और जब काययोग भाषा बोलने में सहयोगी बनाता है, तब वह वचनयोग कहलाता है। व्यवहार की दृष्टि से काययोग के ही ये तीन प्रकार हैं। जो पुदगल मन बनने के योग्य हैं, जिन्हें मनोवर्गणा के पुद्गल कहा गया है, जब वे मन के रूप में परिणत हो जाते हैं तब उन्हें द्रव्य-मन कहते हैं। श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार द्रव्यमन का शरीर में कोई स्थानविशेष नहीं है, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है / दिगम्बरपरम्परा की दृष्टि से द्रव्यमन का स्थान हृदय है और उसका प्राकार कमल के सदश है / भाषावर्गणा के पुद्गल जब वचन रूप में परिणत होते हैं तो वे वचन कहलाते हैं। औदारिक और बैंक्रिय आदि शरीर वर्गणाओं के पुद्गलों से जो योग प्रवर्तमान होता है' 54 / इस प्रकार प्रालम्बनभेद से योग के तीन प्रकार हैं। जैनदृष्टि से मन, वचन और काया ये तीनों पुदगलमय हैं और पुदगल की जो स्वाभाविक गति है वह आत्मा के बिना भी उसमें हो सकती है पर जब पुद्गल मन, वचन और काया के रूप में परिणत हों तब आत्मा के सहयोग से जो विशिष्ट प्रकार का व्यापार होता है वह अपरिणत में असंभव है। पुद्गल का मन प्रादि रूप में परिणमन होना भी प्रात्मा के कर्माधीन ही है। इसलिए उसके व्यापार को प्रात्मव्यापार कहा है। मन, वचन और काया के प्रयोग के पन्द्रह प्रकार बताये हैं जो निम्नलिखित हैं 153. तत्त्वार्थसूत्र राजबार्तिक 6/1/10. 154. दर्शन और चिंतन (हिन्दी) पृष्ठ 309-311- पंडित सुखलालजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org