________________ भिन्न भिन्न दृष्टियों की अपेक्षा से हैं / द्रव्यदृष्टि से नारक संख्यात हैं, प्रदेशदृष्टि से असंख्यात प्रदेश होने से असंख्यात हैं और वर्ण, गंधादि व ज्ञान, दर्शन आदि दृष्टियों से उनकी पर्याय अनन्त हैं। इस प्रकार सभी दंडकों और सिद्धों की पर्यायों का स्पष्ट निरूपण इस पद में किया है। प्राचार्य मलयगिरि ने प्रस्तुत दश दृष्टियों को संक्षेप में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों में विभक्त किया है। द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता को द्रव्य में, अवगाहना को क्षेत्र में, स्थिति को काल में और वर्णादि व ज्ञानादि को भाव में समाविष्ट किया है। 23 द्रव्य की दृष्टि से वनस्पति के अतिरिक्त शेष 23 दंडक के जीव असंख्य हैं और वनस्पति के अनन्त / पर्याय को दृष्टि से सभी 24 दंडक के जीव अनन्त हैं / सिद्ध द्रव्य की दृष्टि से अनन्त हैं / प्रथम पद में अजीव के जो भेद किए हैं वे प्रस्तुत पद में भी हैं। अन्तर यह है कि वहाँ प्रज्ञापना के नाम से हैं और यहां पर्याय के नाम से / पुद्गल के यहाँ पर परमाणु और स्कन्ध.ये दो भेद किये हैं। स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश को स्कन्ध के अन्तर्गत ही ले लिया है। रूपी अजीव की पर्याय अनन्त हैं। उनका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से इसमें विचार किया है। परमाण, द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध और संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय अनन्त हैं / स्थिति की अपेक्षा परमाणु और स्कन्ध दोनों एक दो समय की स्थिति से लेकर असंख्यातकाल तक की स्थिति वाले होते हैं / स्वतंत्र परमाणु अनंतकाल की स्थिति वाला नहीं होता परन्तु स्कन्ध अनन्तकाल की स्थिति वाला हो सकता है। एक परम से स्थिति की दृष्टि से हीन, तुल्य या अधिक होता है। प्रवगाहना की दृष्टि से द्विप्रदेशी से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश से लेकर असंख्यातप्रदेश तक का क्षेत्र रोक सकते हैं परन्तु अनन्तप्रदेश नहीं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य लोकाकाश में ही है और लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं। अलोकाकाश अनन्त है पर वहाँ पूदगल या अन्य किसी द्रव्य की अवस्थिति नहीं है। परमाणवादी न्याय-वंशेषिक परमाण को नित्य मानते हैं और उसके परिणाम-पर्याय नहीं मानते / जबकि जैन परमाणु को भी परिणामीनित्य मानते हैं / परमाणु स्वतंत्र होने पर भी उसमें परिणाम होते हैं, यह प्रस्तुत पद से स्पष्ट होता है / परमाणु स्कन्ध रूप में और स्कन्ध परमाणु रूप में परिणत होते हैं, ऐसी प्रक्रिया जैनाभिमत है। गति और आगति चिन्तन छठा व्युत्क्रांतिपद है। इसमें जीवों की गति और प्रागति पर विचार किया गया है / सामान्यतः चारों गतियों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त उपपात-विरहकाल और उद्वर्तना-विरहकाल है। उन गतियों के प्रभेदों पर चिन्तन करते हैं तो उपपात-विरहकाल और उद्वर्तना-विरहकाल प्रथम नरक में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौवीस मुहूर्त का है। सिद्धगति में उपपात है, उद्वर्तना नहीं है। इसी प्रकार अन्य गतियों में भी जानना चाहिए। 124 पांच स्थावरों में निरन्तर उपपात और उद्वर्तना है। इसमें सान्तर विकल्प नहीं है। इसके पश्चात एक समय में नरक से लेकर सिद्ध तक कितने जीवों का उपपात और उद्वर्तन है, इस पर चिन्तन किया गया है। साथ ही नारकादि के भेद-प्रभेदों में जीव किस किस भव से पाकर पैदा होता है और मरकर कहाँ-कहाँ जाता है, उसके पश्चात् पर-भव का आयुष्य जीव कब बाँधता है, इसकी चर्चा है / जीव ने जिस प्रकार 123. प्रज्ञापना टीका, पत्र 181 अ. 124. प्रज्ञापना टीका पत्र 205 [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org